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आध्यात्मिक चिकित्सा [२] : ७१
उसका उत्स है अध्यात्म | पहले ही वह अन्तर में जन्म ले लेती है। फिर वह प्राण में आती है, फिर मन में और अन्त में स्थूल शरीर में प्रकट हो जाती है। शरीरशास्त्री का यह मत रहेगा कि सबसे पहले शरीर को स्वस्थ करो। शरीर स्वस्थ होगा तो मन अपने-आप स्वस्थ हो जाएगा। ‘स्वस्थ शरीर में बलवान् आत्मा का निवास होता है—यह प्रसिद्ध सूक्त है। हम इसे हजारों बार दोहरा चुके हैं।
अध्यात्मशास्त्री अध्यात्म की साधना करने वाला साधक कहेगा--'सबसे पहले अन्तर के रोग को, अध्यात्म की बीमारी को मिटाओ। जब तक अध्यात्म की बीमारी नहीं मिटेगी तब तक प्राण, मन और शरीर की बीमारियां नष्ट नहीं हो सकती हैं।' ___ दो पद्धतियां हैं—एक है फूल से जड़ तक पहुंचने की और दूसरी है जड़ से फूल तक पहुंचने की। यह सचाई है कि जब मूल मजबूत नहीं होता, जड़ स्वस्थ नहीं होती, मूल को पूरी प्राणशक्ति नहीं मिलती, तब न फूल होता है, न फल होता है और न और कुछ होता है ! ___ एक बूढ़ा पेड़ गिरने लगा। वह गिड़गिड़ाकर भूमि से बोला-'मां ! तुम सबकी रक्षा करती हो, मुझे गिरने से बचाओ।' भूमि बोली- 'बेटा ! अब मैं क्या करूं ? तुमने अपनी जड़ें खोखली कर लीं। मेरे पास अब तुम्हें बचाने का कोई उपाय नहीं है।' पेड़ धराशायी हो गया। ___ जिसकी जड़ें खोखली हो जाती हैं उससे फूल, फल और पत्तों की आशा नहीं की जा सकती। जड़ के महत्त्व को समझें, उस तक पहुंचे। मैं यह कहना नहीं चाहता कि शरीर में बीमारी होती ही नहीं। कुछ होती हैं। किन्तु अधिकांश बीमारियां आत्मा से आती हैं, प्राण से आती हैं, मन से आती हैं। अल्सर एक बीमारी है। उसका मूल है मन । वह सबसे पहले मन की विकृति में जन्म लेती है। होमियोपैथी चिकित्सा पद्धति सभी बीमारियों का मूल मन को मानती है। आयुर्वेद और एलोपैथी चिकित्सा पद्धतियां भी कुछेक रोगों का मूल मन को मानती हैं। अति क्रोध और अति आवेश में आदमी मर जाता है, हार्ट फेल हो जाता है। यह शारीरिक अस्वस्थता के कारण होने वाला मरण नहीं है। यह है मन की असाधारण स्थिति से घटित होने वाला मरण।
तुलसीदासजी के रामचरितमानस में एक प्रकरण है, जिसमें यह बतलाया
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