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नमस्कार महामंत्र के पदों का क्रम
नमस्कार महामंत्र के पदों का क्रम भी चर्चित रहा है । क्रम दो प्रकार का होता है— पूर्वानपूर्वी और पश्चानुपूर्वी । पूर्वपक्ष का कहना है कि नमस्कार महामंत्र में ये दोनों प्रकार के क्रम नहीं है । यदि पूर्वानुक्रम हो तो 'णमो सिद्धाणं' णमो अरहंताणं' ऐसा होना चाहिए। यदि पश्चानुपूर्वी क्रम हो तो ' णमो लोए सव्वसाहूणं' – यहां से प्रारम्भ होना चाहिए और उसके अन्त में 'णमो सिद्धाणं' होना चाहिए। उत्तरपक्ष का प्रतिपादन यह रहा है कि नमस्कार महामंत्र का क्रम पूर्वानुपूर्वी ही है। इसमें क्रम का व्यत्यय नहीं है । इस क्रम की पुष्टि के लिए नियुक्तिकार ने यह तर्क प्रस्तुत किया कि सिद्ध अर्हत् के उपदेश से ही जाने जाते हैं । वे ज्ञापक होने के कारण हमारे अधिक निकट हैं, अधिक पूजनीय हैं, अतः उनको प्रथम स्थान दिया गया। आचार्य मलयगिरि ने एक तर्क और प्रस्तुत किया कि अर्हत् और सिद्ध की कृतकृत्यता में दीर्घकाल का व्यवधान नहीं है । उनकी कृतकृत्यता प्राय: समान ही है। आत्म-विकास में बाधा डालने वाले चार घाय कर्म ही हैं। उनके क्षीण होने पर आत्म-स्वरूप पूर्ण विकसित हो जाता है, विकास का एक अंश भी न्यून नहीं रहता । केवल भवोपग्राही कर्म शेष रहने के कारण अर्हत् शरीर को धारण किए रहते हैं । अतः यह नहीं कहा जा सकता कि अर्हत् से सिद्ध बड़े हैं । नैश्चयिक दृष्टि से बड़े-छोटे का कोई प्रश्न ही नहीं है । यह प्रश्न मात्र व्यावहारिक है । व्यवहार के स्तर पर अर्हत् का प्रथम स्थान अधिक उचित है । अर्हत् या तीर्थंकर धर्म के आदिकर होते हैं। धर्म का स्रोत उन्हीं से निकलता है । उसी में निष्णात होकर अनेक व्यक्ति सिद्ध बनते हैं । अतः व्यवहार के धरातल पर धर्म के आदिकर या महास्रोत होने के कारण जितना महत्त्व अर्हत् का है, उतना सिद्ध का नहीं । प्रथम पद में अर्हत् शब्द के द्वारा केवल तीर्थंकर ही विवक्षित हैं, अन्य केवली या अर्हत् विवक्षित नहीं हैं । यदि नैश्चयिक दृष्टि की बात होती तो सामान्य केवली या सामान्य अर्हत् को पांचवें पद में सब साधुओं की श्रेणी में नहीं रखा जाता । आचार्य और उपाध्याय तीसरे चौथे पद में हैं और केवली पांचवें पद । इसका हेतु व्यावहारिक उपयोगिता ही है ।
यह प्रश्न किया गया' कि आचार्य अर्हत् के भी ज्ञापक होते हैं, इसलिए ' णमो आयरियाणं' यह प्रथम पद होना चाहिए। इसके उत्तर में नियुक्तिकार ने कहा – आचार्य अर्हत् की परिषद् होते हैं । कोई भी व्यक्ति परिषद् को प्रणाम कर राजा को प्रणाम नहीं करता । अर्हत् और सिद्ध दोनों तुल्य-बल हैं, इसलिए उनमें पौर्वापर्य का विचार किया जा सकता है, किन्तु परमनायक अर्हत् और परिषद् कल्प आचार्य में पौर्वापर्य का विचार नहीं किया जा सकता ।
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