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आध्यात्मिक चिकित्सा [२] : ६६
चैतन्य केन्द्रों का रहस्य समझे बिना शब्द को प्राण तक नहीं ले जाया जा सकता। जब तक चैतन्य-केन्द्र का हमें परिचय नहीं है, वहां होने वाले स्पंदनों का परिचय नहीं है, वहां होने वाली सूक्ष्म ध्वनि के स्पंदनों से हम परिचित नहीं हैं तब तक मंत्र की शब्दावली को आगे नहीं बढ़ाया जा सकता। सबसे पहले मन को शक्तिकेन्द्र पर केन्द्रित करना होता है। वहां होने वाले प्रारंभिक स्पंदनों को पकड़ना होता है। उसके पश्चात् सुषुम्ना के मार्ग से, सनाडी से, शब्दावली को ऊपर की ओर ले जाते हैं। ऊपर आते ही वह शब्दावली की भूमिका बदल जाती है, जब वह शब्दावली दर्शन केन्द्र में पहुंचती है तब मन की शब्दावली बन जाती है। भाषा की शब्दावली पीछे छूट जाती है। फिर ‘णमो अरहंताणं' का पाठ नहीं होता, ‘णमो अरहंताणं' का साक्षात् हो जाता है। और जब इस दर्शन-केन्द्र से आगे ललाट से ज्ञान केन्द्र तक वह अर्थ और ऊपर आरोहण करता है तब स्वयं अर्हत् का साक्षात् हो जाता है । अर्हत् पद के अर्थ की रश्मियां हमारे समूचे शरीर में फैल जाती हैं। शब्द 'अशब्द' बन जाता है। पद 'अपद' बन जाता है। मंत्र का प्रयोजन प्रकट हो जाता है। मंत्र वीर्यवान् और शक्तिशाली बन जाता है। यह सारा होता है ज्ञान-केन्द्र में पहुंचने पर। मंत्र जब तक वहां नहीं पहुंचता तब तक उससे बहुत बड़ी आशा नहीं की जा सकती।
इसलिए जब तक हमारा संकल्प अवचेतन मन तक नहीं पहुंच जाता, अवचेतन मन का संकल्प नहीं बन जाता तब तक वह शक्तिशाली नहीं बनता। आज के परामनोवैज्ञानिक या मनोवैज्ञानिक सजेशन और
ऑटोसजेशन के द्वारा चिकित्सा करते हैं। एक है--दूसरे व्यक्ति के द्वारा दी जाने वाली सूचना और दूसरी है--स्व-सूचना। व्यक्ति स्वयं को ही सूचना देता है। व्यक्ति अपने-आप को सूचना देता है— 'मैं स्वस्थ हो रहा हूं, मैं स्वस्थ हो रहा हूं।' जब यह बात अवचेतन मन तक पहुंच जाती है, व्यक्ति स्वस्थ होना शुरू हो जाता है । अवचेतन मन तक पहुंचे हुए सजेशन बहुत लाभप्रद होते हैं। स्थूल मन तक पहुंचने वाले सजेशन थोड़ी-सी ऊर्जा पैदा करते हैं, जिससे आधा गिलास पानी भी गरम नहीं किया जा सकता। बहुत बड़ा परिणाम नहीं आता। बहुत छोटा परिणाम आता है। इसीलिए सुझावों के प्रयोक्ता को बताया जाता है कि जब नींद आ रही हो तब सुझाव दो, जिससे अवचेतन मन स्थूल मन की बात को पकड़ ले । जब जागते हैं
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