________________
६६ : एसो पंच णमोक्कारो
सकता। वह सामान्य मार्ग नहीं बन सकता। सामान्य मार्ग यही है कि साधक सबसे पहले स्थूल शरीर की उपासना करे, उसे अत्यन्त सूक्ष्मता से देखे, समझे । स्थूल शरीर के स्पंदनों को तथा सूक्ष्म-शरीर—कर्म शरीर के स्पंदनों को पकड़ने की क्षमता विकसित करे। इस क्षमता का विकास हुए बिना आध्यात्मिक प्रगति नहीं हो सकती।
कुछ लोग कहते हैं कि चैतन्य-केन्द्रों पर ध्यान प्रारंभ से ही क्यों नहीं कराया जाता ? वे इस बात से अनभिज्ञ हैं कि जब तक श्वास से परिचय नहीं हो जाता, दीर्घश्वास-प्रेक्षा नहीं सध जाती, शरीर-प्रेक्षा का अभ्यास परिपक्व नहीं हो जाता तब तक चैतन्य केन्द्रों पर ध्यान नहीं हो सकता। विकास क्रमिक होता है। हमें एक क्रम से ही अभ्यास करना चाहिए। प्रयोग कराने वाले व्यक्ति को यह ज्ञात होना चाहिए कि प्रयोग करने वाले व्यक्ति की चेतना को कैसे धीमे-धीमे आगे बढ़ाया जाए। जब वह साधक आगे की भूमिका तक अभ्यास कर लेता है तब कोई कठिनाई नहीं होती। एवरेस्ट पर्वत की चोटी तक पहुंचने वाला व्यक्ति क्रमशः आरोहण करते-करते वहां तक पहुंचता है। एक ही दिन में वहां नहीं पहुंच जाता। यदि यह सोचे कि इतना लंबा समय लगा, अच्छा होता कि पहले ही दिन यहां पहुंच जाता, तो यह असंभव कल्पना होगी। आरोहण का एक क्रम होता है। उस क्रम को छोड़कर हम छलांग नहीं भर सकते।
मंत्र के द्वारा होने वाली क्षमता का विकास तब तक नहीं हो सकता जब तक शरीर और शरीर के भीतर होने वाले चैतन्य-केन्द्रों के स्पंदनों का रहस्य नहीं समझ लिया जाता।
नमस्कार महामंत्र बहुत प्रशस्त मंत्र है। उसमें हम अर्हत् को नमस्कार करते हैं, सिद्धों को नमस्कार करते हैं; अध्यात्म-यात्रा के महान् संवाहक आचार्य को नमस्कार करते हैं, समूचे श्रुतसागर का मंथन करने वाले उपाध्याय को नमस्कार करते हैं और समूचे लोक में विद्यमान अध्यात्म साधकों को नमस्कार करते हैं. इन सबको नमस्कार करते हैं। हमारा ध्येय ऊंचा है। हमारी पदावली बहुत पवित्र है। हमारी भावना बहुत अच्छी है । भौतिक उपलब्धि की कोई कामना नहीं है। केवल आत्म-जागरण की ही भावना है। इतना होने पर भी जब तक पूरी विधि समझ में नहीं आती, चैतन्य-केन्द्रों के साथ, प्राणशक्ति के साथ मंत्र को जोड़ने की कला समझ में
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org