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६४ : एसो पंच णमोक्कारो
हमने प्रेक्षा-ध्यान पद्धति का मार्ग चुना है। इसका मूल कारण है कि धर्म प्रायोगिक बने और व्यक्ति-व्यक्ति के अनुभव में उतरे। . वह धर्म तर्क से हटकर, शब्द और बुद्धि से हटकर; अनुभव के धरातल पर आ जाए। जो बात अनुभव के धरातल पर आ जाती है, उसे कोई नहीं मिटा सकता। हजार तर्क सामने आ जाएं, किन्तु जिस व्यक्ति ने जो अनुभव प्राप्त कर लिया, वह तर्क को कभी स्वीकार नहीं करता। जब स्वयं का अनुभव नहीं होता, अपनी पूंजी नहीं होती—सव कुछ उधार ही उधार होता है, तव व्यक्ति को जिधर झुकाना चाहें, झुका सकते हैं। ___ हमने नमस्कार महामंत्र की आराधना की, अभ्यास किया और अनेक प्रयोग किए। यह सब इसलिए किया कि उससे हमारी वृत्तियां बदलें, हमारा स्वभाव बदले, पदार्थ के प्रति होने वाला आकर्षण बदले और अपना अस्तित्व जो अर्हत् है, वह प्रकट हो जाए। यही हमारा उद्देश्य है। हम किसी दूसरे अर्हत् को प्रकट करना नहीं चाहते। हम अपने ही अर्हत् को अपने द्वारा प्रकट करना चाहते हैं। हम स्वयं सत्य को खोजें। अपने भीतर जो सत्य छिपा है उसे प्रकट करें, प्राप्त करें। अर्हत् का ध्यान हम इसलिए करते हैं कि भीतर सोया हुए अर्हत् जाग जाए।
अर्हत् के ध्यान से, अर्हत् के मंत्र के जप से अर्हत् जाग सकता है, किन्तु जब तक मंत्रों की भावना अवचेतन मन तक नहीं पहुंच जाती तब तक हमारा अर्हत् कैसे जागेगा ? यह एक प्रश्न है। मनोविज्ञान का सिद्धांत है कि जो वात अवचेतन मन तक नहीं पहुंच पाती, वह हमें प्रभावित नहीं कर सकती। जो संकल्प केवल स्थूल मन तक ही पहुंचता है, वह संकल्प टिकता नहीं, टूट जाता है। स्थूल मन की शक्ति सीमित है। उसके पास अक्षय शक्ति का खजाना नहीं है। इसलिए जो वात केवल स्थूल मन तक, चेतन मन तक, बाहरी मन तक ही पहुंचती है उस पर ज्यादा भरोसा नहीं किया जा सकता। अवचेतन मन बहुत शक्तिशाली होता है। उस तक पहुंचा हुआ संकल्प फलदायी होता है। वह टूटता नहीं। इसीलिए मनोविज्ञान की भाषा में कहा जाता है कि भावना अवचेतन मन तक पहुंचनी चाहिए। मंत्रशास्त्र की भाषा में कहा जाता है कि भावना प्राण तक पहुंचनी चाहिए। जो मंत्र शब्द की भूमिका को छोड़कर भीतर गहरे में नहीं उतरता, मनोमय नहीं बनता, उसमें बहुत क्षमता नहीं बढ़ती। जब तक मंत्र मन की
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