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आध्यात्मिक चिकित्सा [१] : ६१
धोने का अनुपम उपाय है ।
मन पर मैल तब जमता है जब हम अनित्य को नित्य मानकर चलते हैं। संयोग को शाश्वत और विजातीय को सजातीय मानकर चलते हैं । हम इस बात को सिद्धान्त से और व्यवहार से भी जानते हैं कि पदार्थ अनित्य हैं, संयोग अनित्य हैं । जो पदार्थ प्राप्त है, वह अवश्य नष्ट होता है । जो संयोग मिला है, उसका निश्चित ही वियोग होता है । पदार्थ अनित्य है, पदार्थ का संयोग अनित्य है और पदार्थ विजातीय है । चेतना का गुण-धर्म पदार्थ से भिन्न है। हम इन सब तत्त्वों को जानते हैं, किन्तु पदार्थ को नित्य मानकर व्यवहार करते हैं, पदार्थ के संयोग को शाश्वत मानकर चलते हैं और पदार्थ को सजातीय मानते हैं, अपना मानते हैं । हम इसे जानते नहीं, केवल मानते हैं। जानने और मानने में बहुत बड़ा अन्तर है । जिस दिन हम मानने की अवस्था को पार कर जानने की स्थिति में पहुंच जाएंगे तब हमारे लिए पदार्थ पदार्थ मात्र होगा और चेतन चेतन होगा । पदार्थ का उपयोग हो सकता है, पदार्थ का संयोग हो सकता है, किन्तु पदार्थ शाश्वत नहीं हो सकता, पदार्थ सजातीय नहीं हो सकता, अपना नहीं हो सकता । अशाश्वत को शाश्वत मानने का आरोप, विजातीय को सजातीय मानने का आरोप, केवल मानने के कारण ही होता है । यदि जान लिया जाता है तो सारे आरोप नष्ट हो जाते हैं। जब तक मन पर मोह या मूर्च्छा का मैल जमा रहता है, तब तक व्यक्ति सब कुछ मानता चला जाता है, जानता कुछ भी नहीं है। पदार्थ के मूल स्वरूप को जाने बिना उसे जाना नहीं जा सकता।
मनुष्य नाम और रूप के चक्कर में पड़कर सब कुछ मानता चला जा रहा है और यह झूठा दंभ भरता है कि वह सब कुछ जानता है। हम व्यक्तियों को नाम से जानते हैं । हमने नाम का एक चौखटा बना रखा है। उस चौखटे में जो आकृति आती है, उसे हम अमुक नाम से जान लेते हैं। नाम और आकृति को हटा दो, फिर हम कुछ भी नहीं जान पाते। हमारा भ्रम मान्यता के आधार पर पल रहा है । गहराई में हम उतरकर देखें । सारा संसार मानने की कारा में बंदी है । जानने की बात उससे बहुत दूर है। जिस दिन प्रेक्षा ध्यान सिद्ध होगा, मंत्र की आराधना सिद्ध होगी और शक्तिकेन्द्र से ज्ञानकेन्द्र तक मन को ले जाने या प्राणधारा को प्रवाहित करने की स्थिति बनेगी तब हम कह सकेंगे कि हम जानते हैं। तब मानने की बात छूट
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