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५८ : एसो पंच णमोक्कारो
अनन्त आनन्द और अनन्त शक्ति को दोहराने की आवश्यकता नहीं है । प्रारम्भ में दोहराना आवश्यक होता है । अभ्यास परिपक्व हो जाने के पश्चात् जैसे ही कहा 'अर्हत्', सारा का सारा चैतन्य झंकृत हो उठता है, सारी शक्ति विकसित हो जाती है और आनन्द की लहरें सारे शरीर को आप्लावित करने लगती हैं ।
व्यक्ति बाजार में जाता है। जौहरी की दुकान से हीरे खरीदता है । हीरों की चमक देखता है, उनकी विशुद्धि देखता है और 'हार' के लिए उपयुक्त हीरे खरीद लेता है । हार बन जाता है । सारी कल्पनाएं उसमें समा जाती हैं । फिर जब उसे मांगने की आवश्यकता होती है तब वह केवल इतना ही कहता है-— 'हीरों का हार लाओ ।" वह यह नहीं कहता कि वे हीरे जो चमकते हैं, विशुद्ध हैं, इतने मूल्य वाले हैं । 'हार' कहने से ये सारी चीजें समा जाती हैं।
इसी प्रकार जैसे ही अर्हत की ध्वनि सुनाई दी, सारी चेतना अर्हत्मय हो गई । अर्हत् से झंकृत हो गई। फिर कोई विशेषण की जरूरत नहीं है । जो अर्हत् को जानता है उसके अर्हत् की स्मृति आती है, चेतना में अर्हत् उतरता है, उसे अपनी आत्मा का बोध होता है और शरीर के कण-कण में अर्हत् का अनुभव होने लगता है। ध्यान का चौथा चरण सम्पन्न हो जाता है । जिस व्यक्ति में अर्हत् की प्रतिष्ठा हो गई, जिसे अपने अर्हत् का अनुभव हो गया, उस व्यक्ति में फिर मोह नहीं टिक सकता । उसका मोह विलीन हो जाता है ।
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हम जो भावना का प्रयोग कर रहे हैं, मंत्र का प्रयोग कर रहे हैं, मंत्र का ध्यान कर रहे हैं, वह इसीलिए कर रहे हैं कि हम अपने मन को अर्हत् सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और मुनि - इन पांच परमेष्ठियों से भावित कर लें, हमारा मन पंच परमेष्ठीमय बन जाए। हमारा मन इतना भावित हो जाए, हमारी संकल्पशक्ति इतनी दृढ़ और विकसित हो जाए कि विश्व की कोई भी शक्ति हमें पंचपरमेष्ठी से एक अणु भी दूर न कर सके और हम निरन्तर अपने स्वरूप का — अर्हत्मय स्वरूप का अनुभव करते रहें। संकल्पशक्ति का विकास अत्यन्त आवश्यक है। जब तक यह उपलब्ध नहीं होता तब तक प्रेक्षा ध्यान के अवरोधों को समाप्त नहीं किया जा सकता । शरीर- प्रेक्षा, श्वास- प्रेक्षा, चैतन्य केन्द्र - प्रेक्षा या विचार - प्रेक्षा- इनको आप सहज-सरल न
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