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महामंत्र : ४७
हो रहा है, पर आदमी कमजोर होता जा रहा है। इसका कारण स्पष्ट है। जिसको वर्षों से पाल रखा है, उससे छुटकारा पाना कोई नहीं चाहता। संस्कृत में एक नीतिवाक्य है-'विषवृक्षोऽपि संवर्थ्य स्वयं छेत्तुं न साम्प्रतम्'-अपने हाथों से बढ़े हुए विष-वृक्ष को काटना उचित नहीं है। यह नीतिसूत्र इसीलिए चला होगा। आदमी दुःख के वृक्ष को पालता चला जा रहा है। उसे उखाड़ फेंकने की बात वह सोचता ही नहीं । कितना विपर्यय ! कितना आश्चर्य ! हम बीमारी की दवा लेते हैं और उसे सुख मान लेते हैं। किन्तु यथार्थ में सुख की चेतना तब जागती है जब आदमी नमस्कार मंत्र की आराधना में लगता है। वह बाहर की यात्रा से विरत होकर अन्तर् की यात्रा प्रारम्भ करता है। तब सुख की चेतना जागृत होती है। इस जागरण में नए-नए अनुभव होने लगते हैं जो पहले कभी नहीं हुए थे। उस समय अलौकिक आनन्द का अनुभव होता है। उसे लोकोत्तर सुख की अनुभूति होती है जो पदार्थ से कभी नहीं हो सकती।
जब हम नमस्कार महामंत्र की आराधना करते समय अन्तःकरण की गहराइयों में उतरते हैं और उसको साक्षात् करते हैं तब अलौकिक आनंद की रश्मि फूट पड़ती है, सारा मार्ग आलोक से भर जाता है और तब सुख-दुःख की सारी धारणा बदल जाती है। मनुष्य सदा यह मानता रहा है कि पदार्थ से ही इन्द्रियों को और मन को सुख मिलता है। यह भ्रान्ति टूट जाती है। यह मूर्छा समाप्त हो जाती है। उसे भान हो जाता है कि पदार्थ से ही सुख नहीं मिलता, अपने अन्तःकरण से भी सुख मिलता है। पदार्थ से मिलने वाला कोई भी सुख ऐसा नहीं है जिसके साथ दुःख जुड़ा हुआ न हो। किन्तु इस आत्मानुभव के साथ, आत्मा से फूटने वाली सुख-रश्मियों के साथ कोई दुःख जुड़ा हुआ नहीं है। यह केवल सुख है, विशुद्ध और परिपूर्ण सुख है। इसमें कोई मिश्रण नहीं है। ___आप अनुभव करें कि जब उत्तेजना आती है तब गाली देने में कितना
आनन्द आता है। ऐसा लगता है मानो स्वर्ग का राज्य ही लूट लिया गाली देकर। किन्तु जब उत्तेजना का पारा उतरता है तब मन पश्चात्ताप से भर जाता है, ग्लानि से भर जाता है। इन्द्रिय-संवेदनाओं से होने वाली घटनाओं के प्रति प्रारंभ में हमारा मोह होता है और हम उन्हें कर डालते हैं। उनके घटित होने पर मन में पछतावा होता है और प्रत्येक व्यक्ति यह सोचता है
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