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४६ : एसो पंच णमोक्कारो
सारा दर्शन बदल जाता है, सारी अवधारणा बदल जाती है। ऐसा लगने लगता है कि जिसको हमने सुख मान रखा था, जिसको हमने दुःख मान रखा था, वह सुख न सुख है और वह दुःख न दुःख है। सुख-दुःख की भ्रान्ति मिट जाती है, नींद टूट जाती है और आदमी जाग जाता है। स्वप्न समाप्त हो जाता है। स्वप्न का दर्शन जागने पर बदल जाता है। जागने वाला व्यक्ति स्वप्न की अवधारणा को यथार्थ नहीं मानता। स्वप्न की अवधारणा जागने की अवधारणा से भिन्न होती है। सुख-दुःख की कल्पना में परिवर्तन हो जाता है ।
खुजलाने को कष्टप्रद माना जाता है। खुजलाना कितना आनन्द देने वाला है, यह उस व्यक्ति से पूछें जो खुजली के रोग से पीड़ित है। बुद्धि का विपर्यय, मति का विपर्यय और चिंतन का इतना विपर्यय हो जाता है कि व्यक्ति जो नहीं है उसे मान लेता है, जो है उसे नहीं मानता। ठीक है, आदमी ने पदार्थ में सुख मान रखा है। खाने में सुख होता है, पीने में सुख होता है, वस्तुओं के भोग में सुख होता है। भूख लगी है और यदि खाना नहीं मिलता है तो दुःख होता है। प्यास लगी है और यदि पानी नहीं मिलता. है तो दुःख होता है । जो चाहिए वह नहीं मिलता है तो दुःख होता है । मलेरिया ज्वर में कुनैन नहीं मिलता है तो दुःख होता है। क्या कुनैन की गोलियां खाना सुख है ? कोई सुख नहीं है । हम गहरे में उतर कर देखें । ज्ञात होगा कि भूख स्वयं एक बीमारी है । संस्कृत में इसका नाम है— जठराग्नि जा पीड़ा, जठर की अग्नि से होने वाली पीड़ा । भला बीमारी भी कभी सुख होती है ? तो क्या बीमारी के लिए कोई दवा लेना सुख की बात है ? खाने का अर्थ है उस जठर की अग्नि से उत्पन्न पीड़ा को बुझाना 1 खाना भी बीमारी है । हमारी मान्यता ऐसी हो गई है कि यदा-कदा होने वाली पीड़ा को हम बीमारी मान लेते हैं और रोज होने वाली पीड़ा को बीमारी नहीं मानते । और रोज होने वाली पीड़ा को बीमारी नहीं, सुख मानते हैं। भूख बीमारी है और खाना भी बीमारी है ।
एक बात है। बुरी चीज छूटने पर आदमी को सुख ही होता है, ऐसा नहीं है। बुरी चीज छूटने पर आदमी को दुःख भी होता है। पेट में मल संचित है । मल विजातीय द्रव्य है । जब वह निकाला जाता है तो एक बार आदमी कमजोरी और थकान का अनुभव करता है । खराबी का निष्कासन
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