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४४ : एसो पंच णमोक्कारो
'णमो अरहंताणं'-अर्हत् मार्ग होता है।
मैं दूसरा प्रयोग करवाना चाहता हूं कि अर्हत् का ध्यान पैरों पर क्यों किया जाए ? लोगों को लगेगा कि अर्हत् का स्थान तो सिर है, पैरों पर उनका ध्यान क्यों ? यह प्रश्न है। इसका मुझे ज्ञान था। मेरे पास इसका समाधान भी है। मैंने योग साधना से जो कुछ अनुभव किया, आज के वैज्ञानिक अनुसंधानों को पढ़ा-सुना। एक्यूपंक्चर चिकित्सा पद्धति में खोजे गये सात सौ चैतन्य केन्द्रों के विषय में पढ़ा, योग तथा आचार्यों द्वारा निर्दिष्ट चैतन्य केन्द्रों का अनुभव किया और आज के शरीरशास्त्रियों द्वारा खोजे गए ग्रन्थियों का सिद्धान्त और स्वरूप देखा तो ज्ञात हुआ कि शरीर का कण-कण पवित्र है। पैर का अंगूठा भी उतना ही पवित्र है जितना पवित्र शरीर का शिखर है। कोई अन्तर नहीं है। जब हम कहते हैं-हिमालय बहत बड़ा है तो उसकी तलहटी भी बड़ी है और शिखर भी बड़ा है। गंगा यदि पवित्र है तो उसका प्रत्येक कण पवित्र है। उसकी प्रत्येक बंद पवित्र है। उसकी प्रत्येक धारा पवित्र है। गंगा यदि पवित्र है तो जहां से वह उत्पन्न होती है वह भी पवित्र है और जहां प्रवाहित होती है वह भी पवित्र है। हमारे शरीर का कण-कण पवित्र है। सिर का कोई भाग अपवित्र नहीं है। सारा पवित्र है। हमारे सिर में यदि चैतन्य केन्द्र हैं, हमारे शरीर में पिच्यटरी और पिनियल ग्लैण्डस हैं तो हमारे हाथों-पैरों में भी वैसा ही है। जो ग्रन्थियां सिर में हैं वे हाथों-पैरों में भी हैं। पैरों में अनेक चैतन्य केन्द्र हैं। प्रचीन काल में यह प्रचलित था कि यदि ध्यानस्थ व्यक्ति को जगाना है तो उसके पैर के अंगूठे को बीच से दबाना होता। वह समाधिस्थ व्यक्ति जाग जाता। उसकी समाधि टूट जाती। यह उल्लेख प्राचीन ग्रन्थों में प्राप्त है। इसका रहस्य ज्ञात नहीं हो रहा था। किन्तु एक्यूपंक्चर पद्धति के अध्ययन से यह रहस्य स्पष्ट हो गया। पिच्यूटरी का जो सेंटर है, उस जैसा केन्द्र भी अंगूठे में है। यह रहस्य बहुत लाभदायी हुआ। ___ जब ध्यान की गहराई होती है, व्यक्ति दर्शनकेन्द्र की गहराइयों में चला जाता है और समाधिस्थ हो जाता है। दर्शनकेन्द्र समाधि का बहुत बड़ा केन्द्र है। इसकी अवस्थिति भृकुटियों के बीच है। जो व्यक्ति इस केन्द्र में समाधिस्थ हो जाता है उसके जागरण का उपाय यह है कि उसके पैर के अंगूठे को दबाना । वह दबाव दर्शनकेन्द्र तक पहुंच जाएगा और उस व्यक्ति
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