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३८ : एसो पच णमोक्कारो
हमारो इन्द्रियों के पांचों विषय अनुकूल होते हैं तब सुख का, आनन्द का अनुभव होता है, किन्तु जहां न शब्द है, न रूप है, न गंध है, न रस है
और न स्पर्श है, वहां भी अनुपम आनन्द का अनुभव होता है, अपूर्व सुख मिलता है। प्रशंसा मिलती है, आदमी सुख का अनुभव करता है। उसे तृप्ति मिलती है। पर कोई प्रशंसा नहीं। कोई विरुदावली नहीं, फिर भी आनन्द की अनुभूति -यह है वास्तविक स्थिति । जब साधक दर्शनकेन्द्र के जागरण की स्थिति में पहुंच जाता है, जब उसके तेजोलेश्या के स्पंदन जाग जाते हैं तब एक दिव्य आनन्द की अनुभूति होने लगती है।
शिविर में हमने कुछेक प्रयोग कराए। जिन व्यक्तियों ने तेजोलेश्या के स्पंदनों को पकड़ लिया, वे इससे पूर्व आधा घंटा भी नहीं बैठ पाते थे, अब छह-छह घंटा बैठने में भी उन्हें कोई दिक्कत नहीं होती। कभी-कभी ऐसी स्थिति बनती है कि उन्हें पुनः मूल की स्थिति में लाने के लिए दूसरा प्रयोग कराना पड़ता है। जब ये स्पंदन जाग जाते हैं, बाहर के पदार्थ और पदार्थ से होने वाली सुख की सीमा समाप्त हो जाती है। आन्तरिक घटना घटित होती है और आन्तरिक परिणामों के द्वारा ऐसी विचित्र अनुभूति जागती है, जिसकी पदार्थ से होने वाले सुख से कोई तुलना नहीं की जा सकती। यह आन्तरिक अनुभव, अन्दर से टपकने वाला अनुभव, यह भीतर से झरने वाला सुख का निर्झर ऐसा प्रवाहित होता है कि उसके विषय में कुछ कहा नहीं जा सकता। वाणी वहां मौन हो जाती है, वह केवल अनुभव का विषय है। अनुभव की बात सूक्ष्म होती है। जब वह वाक् में आती है तब स्थूल बन जाती है। साधना करने वाला स्थूल से चलता है और सूक्ष्म तक पहुंच जाता है। वह शब्द से चलता है और अनुभव तक पहुंच जाता है। जिस व्यक्ति ने अनुभव कर लिया, वह अनुभव से चलता है और शब्द तक पहुंचता है। इन दोनों में यह अन्तर रहता है। हमारी वाणी की उत्पत्ति का क्रम यह है-पहले ज्ञान बनता है, ज्ञान में स्पंदन बनता है, फिर वह ज्ञान में प्रकट होता है। जो लब्धि है वह उपयोग में आती है। उससे आगे वह अव्यक्त वाणी में जाती है और फिर व्यक्त वाणी में उतरती है। यह है वाणी की उत्पत्ति का क्रम। साधना का क्रम उससे उल्टा है। साधक पहले स्थूल वाणी में जाता है फिर वह अन्तर वाणी में जाता है। वह जल्प से अन्तर्जल्प में जाता है। वहां से ज्ञान के उपयोग में जाता है और वहां से मूल ज्ञान के
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