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३६ : एसो पंच णमोक्कारो
भयमुक्त होकर चलता है । भय की घटना जीवन में घटित होती रहती है । ध्यान में प्रवेश करने वाले अभय बनना चाहते हैं । किन्तु यह सचाई है कि जो व्यक्ति गहरे ध्यान में जाते हैं, उनके सामने भय की भयंकर स्थितियां आती हैं । ऐसे भय, जिनकी कल्पना भी नहीं की जा सकती । उन सारे भयों को सहन करना अकेले व्यक्ति की बात नहीं रहती । उसे कोई सहारा चाहिए, आलम्बन चाहिए। उसे कोई पीठ थपथपाने वाला चाहिए, आगे बढ़ाने वाला चाहिए, जिससे कि उन सारे खतरों को पार कर, भयों को पार कर वह आगे बढ़ सके ।
वह
अर्हत् के प्रति नमन, अर्हत् के प्रति हमारा समर्पण, एकीभाव, तादात्म्य जैसे-जैसे बढ़ता है, भय की बात समाप्त होती चली जाती है । भय तब होता है, जब हमें कोई आधार प्राप्त नहीं होता । निराधार व्यक्ति को भय होता है । आधार प्राप्त होने पर भय समाप्त हो जाता है। जिस व्यक्ति को व्यवहार में कोई आधार नहीं दिखता, वह सोचता है, बुढ़ापे में क्या होगा ? बीमारी में क्या होगा ? भविष्य में क्या होगा ? उसके मन में अनेक भय जाग जाते हैं। जिस व्यक्ति के परिवार होता है, बेटे पोते होते हैं, बहुएं होती हैं, इतना भयाक्रांत नहीं होता, वह अभय होता है। वह सोचता है बुढ़ापे में सेवा होगी, बीमारी में परिचर्या होगी, भविष्य में सब काम आएंगे। मन में भय कम हो जाता है । जब पास में धन नहीं होता है तब व्यक्ति सोचता है— बुढ़ापे में क्या खाऊंगा ? पास में धन होता है तब बुढ़ापे की चिन्ता नहीं सताती। जब व्यक्ति को दूसरे का आधार प्राप्त होता है तब भय नहीं होता । साधना के मार्ग में जब साधक अकेला होता है तब न जाने उसमें कितने भय पैदा हो जाते हैं । किन्तु जब वह ‘णमो अरहंताणं' जैसे शक्तिशाली मंत्र का आधार लेकर चलता है तब उसके भय समाप्त हो जाते हैं। वह अनुभव करता है कि मैं अकेला नहीं हूं, मेरे साथ शक्तिशाली साथी है ।
एक व्यक्ति साधक के पास आकर बोला- आप अकेले हैं । मैंने सोचा, कुछ देर आपका साथ दूं। आप अकेले में ऊब जाएंगे, आपके साथ रहूं । साधक ने कहा- मैं अकेला कहां था ? तुम आए और मैं अकेला हो गया । मैं अपने प्रभु के साथ था। मेरा प्रभु मेरा साथ दे रहा था । मेरा अर्हत्, मेरा भगवान् साथ था। तुम आए और मुझे अकेला कर दिया। जिस व्यक्ति को
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