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उस शिल्पी से कहें- -अणु को तोड़ो। हथौड़ा बेकार, छेनी बेकार और सब कुछ बेकार । जीवन में भी वह अणु का विस्फोट नहीं कर पाएगा ।
हमारी यात्रा बहुत छोटी है। किन्तु जितनी छोटी, उतनी ही टेढ़ी, उतनी ही कठिन। हम यात्रा शुरू करें शक्तिकेन्द्र से और आगे बढ़ें। किन्तु हम पीछे के रास्ते से आगे बढ़ें, आगे के रास्ते से नहीं । जो सामने है उसी को न देखें। हम सुषुम्ना के मार्ग से, पीछे के मार्ग से आगे बढ़ें। हम सुषुम्ना के मार्ग से ऊपर की ओर चलें । शक्तिकेन्द्र से चलें और तैजस केन्द्र में पहुंचें । तैजस केन्द्र आगे की ओर नहीं है। आगे तो उसके पत्ते, फल-फूल हो सकते हैं । किन्तु जो जड़ है, वह सारी की सारी सुषुम्ना में है। तैजस केन्द्र को आप नाभि ही न समझें। यह तो केवल ऊपरी भाग है, किन्तु जो मूल है, वह पीछे सुषुम्ना में है। हमारी सारी चढ़ाई, हमारा समूचा ऊर्ध्वारोहण उस सुषुम्ना के रास्ते से हो। तैजस केन्द्र तक जाकर हम आगे आनंदकेन्द्र पर पहुंचें। यह तीसरा मध्य विश्राम है। यहां से तालु पर पहुंचें, दर्शनकेन्द्र पर पहुंचें । दर्शनकेन्द्र तक हमारा ऊर्ध्वारोहण होता है तब साक्षात्कार की स्थिति बनती है। मंत्र का साक्षात्कार दर्शनकेन्द्र में होता है । यह साक्षात्कार का बिन्दु है । जब हम इस बिन्दु तक पहुंचते हैं तब कषाय क्षीण होते हैं, राग-द्वेष और मल क्षीण होते हैं । वास्तव में मंत्र के साक्षात्कार द्वारा आत्म-साक्षात्कार की घटना घटित होती है । भेद समाप्त हो जाता है । शब्द मिट जाता है। कोरा अर्थ रहता है । अर्थ के साथ हमारा तादात्म्य हो जाता है । अर्थ और हम एक हो जाते हैं । उस स्थिति में जो ध्येय होता है, वह ध्येय समाप्त होकर ध्याता और ध्येय एक बन जाते हैं । उनमें सर्वथा अभेद घटित हो जाता है।
मंत्र का साक्षात्कार : ३५
उससे आगे की स्थिति है – परावाक्, कोरा ज्ञान, विशुद्ध ज्ञान, कोरे चैतन्य का अनुभव। जब हम दर्शनकेन्द्र से आगे चलते हैं और ज्ञानकेन्द्र के शिखर तक पहुंचते हैं वहां शुद्ध चैतन्य के अनुभव की घटना घटित होती है। इन छोटी-छोटी घाटियों को पार करने में कितनी शक्ति, कितनी ऊर्जा, कितना श्रम और कितना समय चाहिए। उस शक्ति को प्राप्त करने के लिए 'मो अरहंताणं' का आलम्बन लेना बहुत आवश्यक है। अकेला व्यक्ति आरोहण की यात्रा पर निकलता है और बीहड़ घाटियों से गुजरता है तब भयाक्रांत हो जाता है । किन्तु जब कोई साथी होता है तब वह
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