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मंत्र का साक्षात्कार : ३३
में बदल जाता है। ध्येय समाहित हो जाता है। सर्वथा अभेद की स्थिति प्राप्त हो जाती है। कोई भेद नहीं रहता। सैद्धांतिक परिभाषा में पहली स्थिति है वाक्, दूसरी स्थिति है वाक् का क्षयोपशम, वाक् की शक्ति और तीसरी स्थिति है ज्ञान का उपयोग। जब वाक् समाप्त हो जाती है तब अभेद की स्थिति स्थापित होती है। इस स्थिति में मंत्र का साक्षात्कार होता है, मंत्र का देवता प्रकट होता है। वह देवता बाहर से नहीं आता। हम इस भूल को सुधारें कि कोई देवता बाहर से आता है। अभेद की स्थिति का होना ही मंत्र का साक्षात्कार है, मंत्र का देवता है। यह है मंत्र का चैतन्य या मंत्र का जागरण । हमारे तैजस शरीर की स्थिति इतनी शक्तिशाली बन जाती है, हमारे विद्युत् शरीर की स्थिति इतनी तेजस्वी बन जाती है कि हम जो चाहते हैं, वह स्थिति प्रकट हो जाती है। इस स्थिति में ‘णमो अरहताणं' जल्प से छूटकर अन्तर्जल्प में चला जाता है, वाक् से छूटकर मानसिक स्थिति में चला जाता है और मानसिक स्थिति को पार कर अभेद की स्थिति में चला जाता है। उस स्थिति में 'णमो अरहंताणं' का साक्षात्कार होता है और फिर उसके द्वारा जो घटित होना चाहिए, वह सब कुछ घटित हो जाता है। हम भूमिकाओं को पार न करें, एक ही भूमिका में बैठे रहें और सोच लें कि साक्षात् हो जाएगा, क्योंकि हमारी आंखों में देखने की शक्ति है। तो यह भ्रांति होगी। आंखों में देखने की शक्ति है। वह समूचे विश्व को देख सकती है, किन्तु एक स्थान पर बैठकर हम उससे समूचे विश्व को नहीं देख सकते। हम सीमा को पार करें, अवरोध को पार करें और आगे बढ़ें तो इन आंखों से समूचे विश्व को देख सकते हैं। किन्तु एक स्थान पर बैठकर कितना ही प्रयत्न करें; पचास वर्ष तक आंखों को फाड़े-फाड़े बैठे रहें तो इस भीत के परे की वस्तु भी नहीं दीखेगी। उसे देखने के लिए हमें इस स्थान से चलकर भीत के परे जाना होगा। हमें सीमाओं को पार करना होगा। भूमिकाओं का विकास करना होगा। आगे बढ़ना होगा। केवल ध्वनि पर अटक जाते हैं, तो मंत्र की शक्ति पर संदेह होने लग जाता है। व्यक्ति सोचता है—इतने वर्ष बीत गए, इतनी मालाएं जपी, फिर भी कुछ नहीं हुआ। सुना तो था कि मंत्र बहुत शक्तिशाली है, पर उसका फल कुछ भी नहीं मिला। ऐसा हो सकता है कि या तो मंत्रनिर्माताओं ने कहीं कोई भूल की है, या फिर उसका महत्त्व बताने वालों ने कहीं कोई त्रुटि की है
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