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१२ : एसो पंच णमोक्कारो
साधना की दृष्टि से जब गहरे में उतरकर देखता हूं तो मुझे लगता है कि हम सबसे अधिक शब्द से प्रभावित हैं। सभी कहते हैं कि मन चंचल है । मुझे ऐसा नहीं लगता । मन चंचल नहीं है । मन के तीन कार्य हैं— स्मृति, कल्पना और चिंतन । मन अतीत की स्मृति करता है, भविष्य की कल्पना करता है और वर्तमान का चिंतन करता है । किन्तु शब्द के बिना न स्मृति होती है, न कल्पना होती है और न चिन्तन होता है । सारी स्मृतियां, सारी कल्पनाएं और सारे चिंतन शब्द के माध्यम से चलते हैं। हम किसी की स्मृति करते हैं तब तत्काल शब्द की एक आकृति बन जाती है । उस आकृति के आधार पर हम स्मृत वस्तु को जान जाते हैं । कलकत्ता की स्मृति हुई और शब्द के माध्यम से हम कलकत्ता को जान गए । तर्कशास्त्र में स्मृति का एक आकार बताया है। वह आकार है— 'वह' । स्मृति शब्द के माध्यम से होती है । हम किसी वस्तु की कल्पना करते हैं । उसमें भी शब्द माध्यम बनता है । आकृतियां बनती हैं ।
हम चिंतन करते हैं। मन बाहर से पुद्गलों को ग्रहण करता है । वे शब्द की आकृतियों को ग्रहण करते हैं । चिन्तन भी शब्द के माध्यम से होता है।
मन के तीन कार्य — स्मृति, कल्पना और चिंतन शब्द के द्वारा निष्पन्न होते हैं। ये तीनों मन को चंचल बनाते हैं । यह दोष किसका है—मन का या शब्द का ? यह दोष वाक् प्रयत्न का है या मन का ? यदि शब्द का सहारा न मिले, यदि मन को शब्द की बैसाखी न मिले तो मन चंचल हो नहीं सकता। मन लंगड़ा है । उसे चलने के लिए शब्द की बैसाखी चाहिए । मन की गति को सहारा मिलता है शब्द और वाक् प्रयत्न से । इसे ही मन की चंचलता कह दिया जाता है । मन चंचल नहीं है । उसको चंचल कहना एक अनुश्रुति मात्र है । हम गहरे में उतर कर देखें तो ज्ञात होगा कि चंचलता मन की नहीं है । सारी चंचलता है ध्वनि की, शब्द की, भाषा की । यदि हमें मन को निर्विकल्प बनाना है, सारे विकल्पों को शांत करना है, मन को स्थिर करना है तो मन पर ध्यान देने की अपेक्षा शब्द पर अधिक ध्यान देना चाहिए। इसके लिए योग के आचार्यों ने कुछ उपाय सुझाए हैं। उनमें एक महत्त्वपूर्ण उपाय है—खेचरी मुद्रा । जीभ को तालु की ओर मोड़ना
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