SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 28
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८ : एसो पंच णमोक्कारो मिलती है, इसे जानना भी जरूरी है। यह तब जाना जा सकता है जब हम अपनी शरीर-रचना की ओर ध्यान दें। हमारा केवल यह स्थूल शरीर ही नहीं है। साधना प्रारम्भ करने वाले व्यक्ति को सबसे पहले यह मानना जरूरी है कि मैं जो यह साधना कर रहा हूं, वह केवल स्थूल शरीर के लिए ही नहीं कर रहा हूं। स्थूल शरीर को लाभ होता है किन्तु मेरा उद्देश्य इससे आगे है, गहरा है। जो व्यक्ति स्थूल शरीर को पार कर भीतर नहीं झांक सकता, वह व्यक्ति साधना में विकास नहीं कर सकता। इस स्थूल शरीर से परे एक सूक्ष्म शरीर है। इस सूक्ष्म शरीर से परे एक अति सूक्ष्म शरीर है। स्थूल शरीर को हम औदारिक शरीर कहते हैं, सूक्ष्म शरीर को तैजस शरीर और अतिसूक्ष्म शरीर को कार्मण शरीर कहते हैं। थियोसोफिस्ट्स ने इन शरीरों की भिन्न संज्ञाएं दी हैं—फिजिकल बॉडी, एथेरिक बॉडी और एस्ट्रल बॉडी। फिजिकल बॉडी स्थूल शरीर है, एथेरिक बॉडी सूक्ष्म शरीर है और एस्ट्रल बॉडी अतिसूक्ष्म शरीर है। जब तक तैजस शरीर और कार्मण शरीर को प्रभावित नहीं किया जा सकता तब तक साधना सफल नहीं हो सकती, अध्यात्म की उपलब्धि नहीं हो सकती। अध्यात्म के नए-नए पर्यायों को उद्घाटित करने के लिए तैजस शरीर को जागृत करना जरूरी है और कार्मण शरीर को प्रभावित करना जरूरी है। इन दोनों शरीरों की जागृति के लिए तप का आलंबन आवश्यक होता है। जब तप के द्वारा मनोयोग के परमाणु, वचनयोग के परमाणु, काययोग के परमाणु, सूक्ष्म शरीर और अतिसूक्ष्म शरीर के परमाणु उत्तप्त होते हैं, तब वे अपने मलिन परमाणुओं को छोड़कर निर्मल बनते हैं और उस स्थिति में साधना की सफलता प्रारम्भ होती है। बिना तप के यह नहीं हो सकता। ताप के बिना कुछ भी नहीं पिघलता। ताप के बिना बर्फ भी नहीं पिघलती। उसको पिघलने के लिए कुछ-न-कुछ ताप आवश्यक होता है। इसी प्रकार जो मल चिपटा हुआ है, उसे पिघालने के लिए तप ही एकमात्र साधन है। जब तप का ताप प्राप्त होता है, तब चिपके हुए परमाणु अपना स्थान छोड़ देते हैं। यही निर्मलता है, विशुद्धि है। इस तप की प्रक्रिया में, अशुद्ध परमाणुओं को उत्तप्त कर पिघलाने की प्रक्रिया में, मंत्र-साधना का बहुत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003073
Book TitleEso Panch Namukkaoro
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages178
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy