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अनन्त की अनुभूति : ६
बड़ा योगदान है। मंत्र - साधना में हम ध्वनि के द्वारा अ-ध्वनि तक पहुंच जाते हैं। जब हम अ-ध्वनि तक पहुंच जाते हैं तब एक विशिष्ट प्रक्रिया आरम्भ होती है ।
एक प्रश्न उपस्थित होता है कि हमारी साधना का सूत्र है— संपिक्खए अप्पगमप्पएणं- - आत्मा के द्वारा देखो। यह भीतर जाने का सूत्र है । मंत्र और जप की ओर जाना बाहर जाना है । क्या यह विरोधाभास नहीं है ? यह प्रश्न स्वाभाविक है । हम शब्द से अशब्द की ओर जाना चाहते हैं, अनात्मा से आत्मा की ओर जाना चाहते हैं । किन्तु जब हम मंत्र और जप का अनुसरण करते हैं तब वह बाहर की ओर जाना होता है । यह बाहर जाने का उपक्रम है ।
प्रश्न स्वाभाविक है । उसका समाधान भी जटिल नहीं है। हम साधना में शरीर का आलंबन लेते हैं, ग्रन्थियों और प्राणशक्ति का आलंबन लेते हैं । शरीर आत्मा नहीं है । चैतन्य-केन्द्र, ग्रन्थियां और प्राणशक्ति आत्मा नहीं है । फिर भी हम इनका आलंबन इसलिए लेते हैं कि शरीर हमारे अस्तित्व का अभिन्न अंग है । मन, वाणी भी हमारे अस्तित्व के अभिन्न अंग हैं । जब हम शरीर, श्वास और प्राणशक्ति का आलंबन लेते हैं तब वाणी का आलंबन क्यों नहीं ले सकते ? शरीर का आलंबन इसलिए लेते हैं कि शरीर के प्रकम्पनों को देखते-देखते सूक्ष्म शरीर — तैजस शरीर के प्रकंपनों को पकड़ने लग जाए । तैजस शरीर के प्रकंपनों को पकड़ते-पकड़ते हम कर्मशरीर के प्रकंपनों को पकड़ने लग जाएं। इस प्रकार सभी तरह के प्रकंपनों को पकड़ते-पकड़ते हम अप्रकम्प स्थिति में चले जाएं। इसलिए हम शरीर का आलंबन लेते हैं । हम शब्द का आलंबन इसलिए लेते हैं कि हम शब्द से शुरू करें और शब्द की विभिन्न अवस्थाओं को पार कर, अशब्द की अवस्था में पहुंच जाएं। विकल्प से यात्रा शुरू कर निर्विकल्प स्थिति तक पहुंच जाएं। इसीलिए शब्द का आलंबन लिया जाता है ।
मंत्र शब्दात्मक होता है। उसमें अचिंत्यशक्ति होती है। उसके द्वारा आत्मिक जागरण किया जा सकता है, अध्यात्म के द्वार खोले जा सकते हैं, व्यक्ति अन्तर्मुखी बन सकता है और पूरा आध्यात्मिक बन सकता है। मंत्र के द्वारा और भी अनेक शक्तियों का जागरण हो सकता है । साधना तब तक सफल नहीं होती जब तक शक्ति का विकास नहीं होता, विस्फोट की
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