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________________ ४ : एसो पंच णमोक्कारो और दूसरी अविद्वानों की श्रेणी। एक स्वामी की श्रेणी और दूसरी सेवक की श्रेणी। अहंकार ने व्यक्ति को इतना बांट दिया, व्यक्ति-व्यक्ति के बीच इतनी सीमा-रेखाएं खींच दी कि व्यक्ति मूलभूत समानता को विस्मृत कर अलग-अलग खेमों में बंट गए। हमारे शरीर का दूसरा प्रहरी है --ममकार । ससीम मनुष्य का ममकार असीम हो गया है। मनुष्य पदार्थ के प्रति इतना मूर्छित है कि वह जो अपना नहीं है, उसे भी अपना मान बैठा है। 'यह मेरा है' इस चिन्तन ने सारी समस्याओं को जन्म दे डाला। मेरेपन की भावना शरीर तक ही सीमित नहीं है, वह असीम हो गई है। जो संपदा, जो पदार्थ आत्मा से संबंधित नहीं है,जो सर्वथा विजातीय है, उसे भी मनुष्य ने अपना मान लिया। उसे अपना मानकर मनुष्य ने उस पर ममकार का आवरण डाल दिया। ममत्व से उसे बांध लिया। इस ममत्व के कारण समानता की अनुभूति टूट गई। इन तत्त्वों ने मनुष्य को सीमित कर दिया। उसकी अनन्त की अनुभूति समाप्त हो गई। वह अपने को ससीम अनुभव करने लगा। जीवन में कभी-कभी ऐसे क्षण आते हैं जब चेतना का नया उन्मेष होता है और मनुष्य को यह अनुभव होता है कि वह सान्त नहीं, अनन्त है, ससीम नहीं, असीम है। इस अनुभूति के क्षण में अनन्त की दिशा में उसकी यात्रा शुरू होती है और वह अनन्त और असीम के यात्रापथ का पथिक बन जाता है। उस यात्रापथ में उसके सहायक चार तत्त्व होते हैं—संयम, तप, मंत्र और तंत्र । केवल संयम से काम चल सकता है, किन्तु कोरे संयम की बात समझ में नहीं आती तब तप को साथ जोड़ दिया। संयम करो और तपाओ। अपने स्थूल शरीर को तपाओ। स्थूल शरीर के भीतर जो सूक्ष्म शरीर है, जो कर्म-शरीर है, जो संस्कारों का शरीर है, उसे तपाओ। जब तप की बात भी पूरी समझ में नहीं आई तब उसके साथ मंत्र और तंत्र जोड़े गए। कहा गया-मंत्र की उपासना करो, तंत्र की उपासना करो। केवल संयम से भी काम चल सकता था, केवल तप से भी काम चल सकता था किन्तु मनुष्य विस्तार चाहता है। ऐसी स्थिति में वह एक ही पदार्थ को अनेक भागों में विभक्त कर देता है। मंत्र की साधना तंत्र की साधना से भिन्न नहीं है। मंत्र स्वयं तप है। मंत्र-जप स्वाध्याय का एक प्रकार है। वह ध्यान है। मंत्र को स्वाध्याय और ध्यान से पृथक् नहीं माना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003073
Book TitleEso Panch Namukkaoro
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages178
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size7 MB
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