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जिज्ञासितम् : १२३
साहस रखो, कुछ भी होना नहीं है। पेट की अग्नि यदि मंद है तो पौष्टिक भोजन पचेगा नहीं, विकार बढ़ाएगा। अग्नि यदि तेज होती है तो सब कुछ खाया-पीया भस्म हो जाता है। मंत्र से ऊर्जा बढ़ती है। जब ऊर्जा बढ़ती है तब साहस भी जाग उठता है।
प्रश्न--क्या ऊर्जा घटती-बढ़ती रहती है या समान रहती है ? ऊर्जा के घटने-बढ़ने के कारण क्या हैं ? ___उत्तर-ऊर्जा समान नहीं रहती। वह कभी घटती है और कभी बढ़ती है। वह आन्तरिक कारणों से भी घटती-बढ़ती रहती है और बाहरी कारणों से भी घटती-बढ़ती है। उपयुक्त निमित्त मिलते हैं तो वह बढ़ जाती है। दिन में जो ऊर्जा होती है, वह रात में नहीं होती। सूर्य के आतप में जो ऊर्जा सक्रिय होती है, वह रात में सक्रिय नहीं होती। एक प्रश्न आया कि जैनों में रात्रि-भोजन का जो निषेध है उसके पीछे वैज्ञानिक दृष्टि क्या है ? मैंने कहा—जैन आचार्यों ने कहा है कि रात को हमारा तैजसकेन्द्र, अग्नि का तंत्र सिकुड़ जाता है, उसकी शक्ति क्षीण हो जाती है, इसलिए रात को खाया गया भोजन उचित रूप में नहीं पचता। अपचा हुआ भोजन विकृतियां पैदा करता है। बहुत वैज्ञानिक बात है। वायु का दर्द भी दिन में कम महसूस होता है, रात में उसकी उग्रता बढ़ जाती है। सूर्य की किरणों से जो परमाणु शरीर को मिलते हैं, वे शक्ति पैदा करते हैं, पीड़ा कम अनुभूत होती है। जैसे ही रात आती है; शक्ति प्राप्त होना बंद हो जाता है। पीड़ा उभर आती है। कुछेक बाहरी निमित्तों से ऊर्जा घटती भी है और बढ़ती भी है। ऊर्जा के घटाव-बढ़ाव के आन्तरिक कारण भी हैं। जब मन में बुरे विचार आते हैं तब ऊर्जा घट जाती है, हमारा आभामंडल (ओरा) मलिन हो जाता है। जब विचार पवित्र होते हैं तब ऊर्जा बढ़ती है, आभामंडल पवित्र हो जाता है। अच्छे विचारों और भावनाओं के साथ तैजस शरीर की सक्रियता बढ़ती है और वह अधिक शक्ति पैदा करता है, शक्तिशाली हो जाता है।
मंत्र की आराधना पवित्र उपक्रम है इससे पवित्र विचार आते हैं, पवित्र भावना आती है। इन पवित्र विचारों से ऊर्जा बढ़ती है।
प्रश्न—जब इन्द्रियां वश में नहीं होती है, तब संकल्प-शक्ति का विकास हो सकता है ? जब संकल्प-शक्ति का विकास होता है तब क्या इन्द्रिय और
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