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ओम् : ११५
जप करते समय प्राणशक्ति से लाभान्वित होता ही है और साथ-साथ पंच परमेष्ठी से अपनी तन्मयता का अनुभव करता है, अपने शरीर के कण-कण में परमेष्ठी पंचक की अवस्थाओं का अनुभव करता है। यह तादात्म्य होता है तब आंतरिक शक्तियां उसी रूप में विकसित होने लगती हैं। जहां तक प्राणशक्ति का संबंध है, दोनों परंपराओं में कोई अन्तर नहीं आता, क्योंकि वह शरीर के साथ जुड़ी हुई घटना है। जहां भावनात्मक शक्ति का प्रश्न है वहां अपनी-अपनी भावना के अनुसार परिवर्तन घटित होने लगता है।
जैन आचार्यों ने 'ओम्' की निष्पत्ति का एक दूसरा रूप भी प्रस्तुत किया है। अ—ज्ञान, उ –दर्शन और म्—चारित्र का प्रतीक है। इन तीन वर्षों से निष्पन्न (अ+उ+म्) ओंकार त्रिरत्न का प्रतीक है। ओंकार की उपासना करने वाला मोक्षमार्ग की उपासना करता है, ज्ञान, दर्शन और चारित्र—तीनों की उपासना करता है। यह भावनात्मक संबंध है। इस प्रकार 'ओम्' समूची वर्णमाला और मांत्रिक अक्षरों में एक मूर्धन्य अक्षर बन गया।
शब्द उच्चारण का एक बहुत बड़ा विज्ञान है। मंत्रशास्त्र ने उस पर बहुत प्रकाश डाला है। ओंकार के उच्चारण से जमे हुए मल धुल जाते हैं। साधना का प्रयोजन होता है मन को निर्मल करना, मन पर प्रतिदिन जमने वाले मैलों को दूर करना। जब मैल दूर होते हैं तब आन्तरिक व्यक्तित्व बदलता है, नाडी-संस्थान निर्मल होता है। यह चेतना की सक्रियता क्या चमडी में है ? नहीं। हड्डियों में है ? नहीं। मांस में है ? नहीं। वह नाड़ी-संस्थान में है। जिसका नाड़ी-संस्थान जितना निर्मल होता है वह उतना ही ज्ञानवान् और क्रिया में सक्षम होता है। नाड़ी-संस्थान में प्राणधारा के तीन मुख्य स्रोत हैं। योग की भाषा में इन्हें इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना कहा जाता है। हमारी चेतना के ऊर्ध्वगमन में, अन्तश्चेतना के विकास में सुषुम्ना का बड़ा योग है। हमारी ज्ञान की शक्ति और कर्म की शक्ति सुषुम्ना से विकीर्ण होकर बाहर फैलती है। जब प्राण का प्रवाह इड़ा और पिंगला के मार्गों से हटकर सुषुम्ना में प्रवेश करता है तब हमारी अतीन्द्रिय शक्तियां जागृत होती हैं, चेतना का ऊर्ध्वगमन होता है, वासनाएं कम होती हैं, कामनाएं कम होती हैं, रासायनिक परिवर्तन घटित हो जाता है, ग्रन्थियों के स्राव बदल जाते हैं, व्यक्तित्व का रूपान्तरण हो जाता है। जिस व्यक्ति से हम अच्छे आचरण
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