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११४ : एसो पंच णमोक्कारो
ओंकार से उत्पन्न होती है। इसीलिए उसे 'मातृकासू' कहा जाता है। ___'सोऽहं' का महत्त्व अपनी ध्वनिगत विशेषता के कारण है। प्राणशक्ति के साथ उसका स्वाभाविक संबंध है, इसलिए उसका महत्त्व है। उसके साथ भावना का संबंध भी जुड़ा हुआ है। 'सोऽहं' का अर्थ होता है-मैं वह हूं। जो परमात्मा है वह मैं हूं। इस भावनात्मक संबंध के कारण 'सोऽहं' एक बहुत शक्तिशाली मंत्र बन गया। ध्वनिगत विशेषता और भावनात्मक संवेदना के कारण इसका स्थान महामंत्रों की कोटि में प्रस्थापित है। _ 'सोऽहं' में थोड़ा-सा परिवर्तन हुआ। ‘साकार' को हटाया, 'हकार' को हटाया और 'ओम्' बन गया। ‘सोऽहं' का परिवर्तित रूप है 'ओम्', जो भाषाशास्त्रीय दृष्टि और ध्वनि विश्लेषण के अनुसार 'सोऽहं' के बहुत निकट है। 'स' और 'ह' चले जाते हैं और शेष 'ओम्' रह जाता है। 'ओम्' हमारी प्राणगत ध्वनि है। प्राण के साथ सहज उच्चरित होने वाली ध्वनि है | इसलिए इसका बहुत मूल्य है। 'ओम्' का पर्याय शब्द है ‘प्रणव'। महर्षि पतंजलि ने इसे पुरुष का वाचक बतलाया है। ‘प्रणव' प्राण को देने वाला होता है। वह हमारी प्राणशक्ति को जागृत करता है। 'ओंकार' हमारी प्राणशक्ति को प्रज्वलित करने वाला है, इसलिए उसका बहुत मूल्य है। वैज्ञानिक युग में जितना ऊर्जा का मूल्य है उतना ही हमारी आंतरिक शक्ति के विकास में, जीवनतंत्र के परिचालन में इसका मूल्य है। इस प्राकृतिक मूल्य के साथ साधना की परंपराओं ने भावनात्मक मूल्य का भी योग किया है। वैदिक परंपरा में 'अ, उ, म्,'---इन तीन अक्षरों के योग से ओम् शब्द निष्पन्न होता है। 'अ' ब्रह्मा, 'उ' विष्णु और 'म' महेश-ये तीनों शक्तियां इसके साथ जुड़ी हुई हैं। वैदिक परंपरा का अनुयायी ‘ओंकार' का जप करते समय अपनी प्राकृतिक प्राणशक्ति का उपयोग करता है और साथ-साथ अपने में ब्रह्मा, विष्णु और महेश की शक्ति का अनुभव करता है। एक ओर उसकी प्राणशक्ति जागृत होती है तो दूसरी ओर उसकी आंतरिक शक्तियां भी संवेदनशीलता के कारण प्रकट होती हैं। __ जैन परंपरा में 'ओम्' पंच परमेष्ठी के पांच वर्षों से निष्पन्न होता है। अर्हत्, अशरीर, आचार्य, उपाध्याय और मुनि-इन पांच परमेष्ठियों के आदि अक्षरों का योग करने पर 'ओम्' बनता है ---अ+अ+आ+उ+म्=ओम् । पूरा नमस्कार महामंत्र ओंकार में गर्भित है। एक जैन व्यक्ति 'ओंकार' का
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