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मानसिक स्वास्थ्य और नमस्कार महामंत्र : ८५
कल उस प्रयत्न को छोड़ देते हैं तो वह ऊर्जा का वायुमंडल स्वतः शिथिल हो जाता है। एक मंत्र-साधक तीस दिन तक मंत्र की आराधना करता है
और इकतीसवें दिन वह उसे छोड़ देता है और फिर बत्तीसवें दिन उसे प्रारंभ करता है तो मंत्र-शास्त्र कहता है कि उस साधक की मंत्र-साधना का वह पहला दिन ही मानना चाहिए। वहां से फिर गणना प्रारंभ करनी चाहिए। तीस दिन की साधना समाप्त। अब इकतीसवां दिन पहला दिन बन जाता है। इसलिए निरंतरता होनी चाहिए। एक दिन भी बीच में न टूटे।
साधना का काल दीर्घ होना चाहिए, लंबा होना चाहिए, ऐसा नहीं हो कि काल छोटा हो। दीर्घकाल का अर्थ है जब तक मंत्र का जागरण न हो जाए, मंत्र वीर्यवान् न बन जाए, मन चैतन्य न हो जाए, जो मंत्र शब्दमय था, वह एक ज्योति के रूप में प्रकट न हो जाए, तब तक उसकी साधना चलती रहे। जब तक ज्योतिकेन्द्र में मंत्र प्रकाशमय, ज्योतिर्मय और तेजमय न बन जाए तब तक साधना होनी चाहिए, तब तक आरोहण होना चाहिए। यही है दीर्घकालिता। __ जब तक मंत्र के तीनों तत्त्वों-शब्द, संकल्पशक्ति और साधना-का समुचित योग नहीं होता तब तक मंत्रसाधक सत्य-संकल्प नहीं होता। सत्य-संकल्प का अर्थ है--संकल्प की सिद्धि कर लेना, संकल्प का सफल हो जाना; संकल्प का यथार्थ बन जाना। कल्पना से संकल्प और संकल्प से यथार्थ । संकल्प और यथार्थ की दूरी समाप्त हो जाए। __जिस मंत्र के द्वारा जो कार्य संभव होता है, उसका संकल्प किया और कालान्तर में वह यथार्थ बनकर प्रत्यक्ष हो गया—इस भूमिका में पहुंचकर ही मंत्र-चिकित्सा के द्वारा मन की बीमारियों को मिटाया जा सकता है। इस स्थिति में ही मन के संक्लेशों की चिकित्सा की जा सकती है, वे संक्लेश मिट सकते हैं। मन तब पूरा स्वस्थ बन जाता है। जब व्यक्ति का मन स्वस्थ होता है तब उसमें धर्म का अवतरण होने लगता है। यह सहज होता है, विशेष प्रयत्न की आवश्यकता नहीं होती। उस समय ऐसा लगता है कि किसी दिव्य-शक्ति का प्रकाश कोई प्रसाद या अनुग्रह अपने-आप बरस रहा है और आत्मा में प्रवेश कर रहा है। इसे हम किसी नाम से पुकारें। ईश्वर के कर्तृत्व में विश्वास करने वाला मान ले कि ईश्वर का प्रसाद बरस रहा है, अनुग्रह बरस रहा है। अपने आत्म-कर्तृत्व में विश्वास करने वाला मान
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