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मानसिक स्वास्थ्य और नमस्कार महामंत्र : ८३
द्वारा ऐसा किया जा सकता है। मन के प्रकाश से उन केन्द्रों को प्रकाशित कर ऐसा किया जा सकता है। जब तक हमारे चैतन्यकेन्द्र सक्रिय नहीं होंगे, जब तक हमारी शक्ति के मूल स्रोत या प्राणधारा को स्वीकार करने वाले केन्द्र अपना काम नहीं करेंगे तब तक विद्युत् का पूरा प्रवाह हमें उपलब्ध नहीं होगा। ऐसी स्थिति में मन भी शक्तिशाली नहीं बनेगा। मन को शक्तिशाली बनाने के लिए चैतन्यकेन्द्रों पर ध्यान और चैतन्यकेन्द्रों में मंत्र की आराधना—दोनों बहुत महत्त्वपूर्ण तथ्य हैं।
अपान प्राणधारा से वाणी प्रस्फुटित होती है अथवा शक्तिकेन्द्र से वाक् प्रस्फुटित होती है। वह ध्वनित नहीं होती; सुनाई नहीं देती, उच्चरित नहीं होती किन्तु उसका पहला प्रस्फुटन शक्तिकेन्द्र से होता है, अपान प्राण की मर्यादा में होता है। बीज अंकुरित नहीं होता, किन्तु उसका प्रस्फुटन हो जाता है। मंत्र की उपासना करने वाले व्यक्ति सबसे पहले अपना ध्यान केन्द्रित करते हैं—शक्तिकेन्द्र पर । वे अपने मन का नियोजन शक्तिकेन्द्र पर करते हैं। जब शक्तिकेन्द्र से वाक् का, मंत्रों के शब्दों का प्रस्फुटन शुरू होता है तब वह आरोहण करते-करते स्वास्थ्यकेन्द्र, तैजसकेन्द्र, आनन्दकेन्द्र, प्राणकेन्द्र, दर्शनकेन्द्र और ज्योतिकेन्द्र तक पहुंचता है और विशुद्धिकेन्द्र तक आते-आते शब्द की सीमा समाप्त हो जाती है। आगे वह मंत्र प्राण की सीमा में, मन की सीमा में चला जाता है, सक्रियता उत्पन्न करता है और सारे तंत्र को शक्तिशाली बना देता है। ___ मंत्र का पहला तत्त्व है—शब्द और शब्द से अशब्द । शब्द अपने स्वरूप को छोड़कर प्राण में विलीन हो जाता है, मन में विलीन हो जाता है तब वह अशब्द बन जाता है।
मंत्र का दूसरा तत्त्व है—संकल्प। मंत्र-साधक की संकल्प-शक्ति दृढ़ होनी चाहिए। यदि संकल्प-शक्ति शिथिल है, दुर्बल है तो मंत्र की उपासना उतना फल नहीं दे सकती, जितने फल की अपेक्षा की जाती है। मंत्र साधक में विश्वास की दृढ़ता होनी चाहिए। उसकी श्रद्धा और इच्छाशक्ति गहरी होनी चाहिए। उसका आत्म-विश्वास जागृत होना चाहिए। उसमें यह भावना होनी चाहिए, आत्म-विश्वास होना चाहिए कि जो कुछ वह कर रहा है, अवश्य ही फलदायी होगा। वह अपने अनुष्ठान में निश्चित ही सफल होगा। सफलता में काल की अवधि का अन्तर आ सकता है। किसी को
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