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८२ : एसो पंच णमोक्कारो
तैजसकेन्द्र, आनन्दकेन्द्र, विशुद्धिकेन्द्र, प्राणकेन्द्र, दर्शनकेन्द्र और ज्योतिकेन्द्र- सक्रिय हो जाते हैं तब हमारी शक्ति का स्रोत फूटता है और मन शक्तिशाली बन जाता है। अन्यथा मन शक्तिशाली नहीं बनता। मन पर निरन्तर आघात और प्रतिघात होते रहते हैं, सामाजिक, पारिवारिक
और राजनीतिक वातावरण में ऐसी घटनाएं घटित होती रहती हैं जिनसे मन आहत होता है, प्रतिहत होता है। इतने आघात-प्रतिघात के बीच रहता हुआ मन स्वस्थ कैसे हो सकता है ? मन को आघातों से बचाने पर ही वह शक्तिशाली और स्वस्थ रह सकता है। अन्यथा मानसिक स्वास्थ्य की बात कोरी कल्पनामात्र रह जाती है। ___ मन पर होने वाले आघातों से बचने के लिए एक ही उपाय है कि साधक अपने चैतन्यकेन्द्रों को सक्रिय करे। चैतन्यकेन्द्रों को सक्रिय करने की भी प्रक्रिया है। तैजसकेन्द्र पर ध्यान किया, मन का प्रकाश नाभि से सुषुम्ना तक, पृष्ठभाग तक फैलाया। इससे मन की एकाग्रता सधेगी और सारा तैजसकेन्द्र सक्रिय हो जायेगा। जहां मन जाता है, वहां प्राण का प्रवाह भी जाता है। जिस स्थान पर मन केन्द्रित होता है, प्राण उस ओर दौड़ने लगता है। जब मन को प्राण का पूरा सिंचन मिलता है और शरीर के उस भाग के सारे अवयवों को, अणुओं और परमाणुओं को प्राण और मन
-दोनों का सिंचन मिलता है तब वे सारे सक्रिय हो जाते हैं। जो कण सोये हुए हैं, वे जाग जाते हैं। शक्ति बढ़ जाती है। यहां हम अति कल्पना न करें कि दो-चार-दस दिन में चैतन्यकेन्द्रों पर ध्यान करने से उनकी सक्रियता बढ़ जायेगी। दस दिन में कुछ अवश्य होगा पर इतना ही पर्याप्त नहीं है।
कोई व्यक्ति दर्शनकेन्द्र पर ध्यान करता है। उसे वहां स्पन्दनों का स्पष्ट अनुभव होता है, उसे वहां प्रकाश दीखने लगता है, तब मानना चाहिए कि वह केन्द्र सक्रिय हुआ है। किन्तु एक चैतन्यकेन्द्र के सक्रिय होने पर सारे चैतन्यकेन्द्र सक्रिय नहीं हो जाते। दूसरे चैतन्यकेन्द्र निष्क्रिय पड़े रहते हैं। यह कसौटी है कि जहां स्पंदनों का अनुभव हो, प्रकाश दीखे, वे चैतन्यकेन्द्र सक्रिय हैं। जहां कुछ भी अनुभव नहीं होता, वे चैतन्यकेन्द्र निष्क्रिय हैं। जो सक्रिय हैं, उन्हें और अधिक सक्रिय बनाना और जो निष्क्रिय हैं, उन्हें सक्रिय बनाना, यह मंत्र-साधना के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण बात है। मंत्र के
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