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मानसिक स्वास्थ्य और नमस्कार महामंत्र : ८१
है--शब्द । शब्द मन के भावों को वहन करता है। मन के भाव शब्द के वाहन पर चढ़कर यात्रा करते हैं। कोई विचार-संप्रेषण (टेलीपेथी) का प्रयोग करे, कोई सजेशन या ऑटो सजेशन का प्रयोग करे, उसे सबसे पहले ध्वनि का, शब्द का सहारा लेना ही पड़ता है। वह व्यक्ति अपने मन के भावों को तेज ध्वनि में उच्चारित करता है। जोर-जोर से बोलता है। ध्वनि की तरंगें तेज गति से प्रवाहित होती हैं। फिर वह उच्चारण को मध्यम करता है, धीरे-धीरे करता है, मंद कर देता है। पहले होंठ, दांत, कंठ सव अधिक सक्रिय थे, वे मंद हो जाते हैं, ध्वनि मंद हो जाती है। होंठ तक आवाज पहुंचती है पर बाहर नहीं निकलती। जोर से बोलना या मंद स्वर में बोलना—दोनों कंठ के प्रयत्न हैं। ये स्वर-यंत्र के प्रयल हैं। जहां कंठ का प्रयत्न होता है, वह शक्तिशाली तो होता है किन्तु बहुत शक्तिशली नहीं होता। उसका परिणाम आता है किन्तु वह परिणाम नहीं आता, जितना हम मंत्र से उम्मीद करते हैं। हम मानते हैं कि मंत्र से यह हो सकता है, वह हो सकता है। वैसा कंटध्वनि का परिणाम नहीं आता, तब निराशा आती है
और मंत्र के प्रति संशय हो जाता है। मंत्र की वास्तविक परिणति या मूर्धन्य परिणाम तब आता है जब कंठ की क्रिया समाप्त हो जाती है और मंत्र हमारे दर्शन-केन्द्र में पहुंच जाता है। यह मानसिक क्रिया है। जव मंत्र की मानसिक क्रिया होती है, मानसिक जप होता है तब न कंठ की क्रिया होती है, न जीभ हिलती है, न होंठ और न दांत हिलते हैं। स्वर-तंत्र का कोई प्रकंपन नहीं होता। मन ज्योतिकेन्द्र में केन्द्रित हो जाता है। जो व्यक्ति मंत्र का मानसिक अभ्यास करना चाहें, वे अपनी आंखों की कीकी को थोड़ा ऊपर उठाए, भृकुटि को भी ऊपर उठायें और मन की पूरी शक्ति को ज्योतिकेन्द्र, तिलक के स्थान पर केन्द्रित करें और इसी स्थान से मंत्र का जप चले । उच्चारण नहीं, केवल मंत्र का दर्शन, मंत्र का साक्षात्कार, मंत्र का प्रत्यक्षीकरण। इस स्थिति में मंत्र की आराधना से वह सब कुछ उपलब्ध होता है जो उसका विधान है। मंत्र इस भूमिका तक पहुंचकर ही कृतकृत्य होता है। यह उसके आरोहण की भूमिका है। ___ मानसिक जप की भूमिका उपलब्ध हुए बिना हम मन की स्वस्थता की भी पूरी परिकल्पना नहीं कर सकते। मन का स्वास्थ्य हमारे चैतन्यकेन्द्रों की सक्रियता पर निर्भर है। जब सारे चैतन्यकेन्द्र-शक्तिकेन्द्र, स्वास्थ्यकेन्द्र,
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