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कर्म-फल भोगने की कला ___ एक व्यक्ति पचास दिन भूखा रह सकता है पर समता की साधना नहीं कर सकता। समता की साधना सबसे कठोर साधना है। आचार्य सोमदेव ने नीतिवाक्यामृत में लिखा-समता परमं आचरणं। परम आचरण है समता। सुख-दुःख आदि सब स्थितियों में सम रहने की साधना सहज नहीं है।
सनत्कमार समता की साधना में निमग्न हो गए। एक ओर रूप का गर्व समाप्त हुआ तो दूसरी ओर समता की साधना में उत्कर्ष आ गया। धर्म की कला : निदर्शन
कहा जाता है-वही बूढ़ा ब्राह्मण वैद्य का रूप बना कर मुनि के सामने प्रस्तुत हुआ। उसने मुनि से निवदेन किया-मुनिप्रवर! मैं कुशल चिकित्सक हूं। दरं से ही आपको देखकर मैं जान गया हं-आप बीमार हैं। आप कुष्ठ जैसे भयंकर रोग से ग्रस्त हैं? आप आज्ञा दें, मैं आपकी चिकित्सा कर आपकी काया को कंचन बना दूंगा।
मुनि सनत्कुमार बोले-वैद्यवर! मुझे चिकित्सा की जरूरत नहीं है। वैद्य ने पनः चिकित्सा का आग्रह किया। मुनि ने उसके आग्रह को अस्वीकार करते हुए कहा-वैद्यवर! आप क्या चिकित्सा करेंगे?
मनि ने अपने मंह में अंगली डाली। जहां कष्ठ झर रहा था, उस पर थूक के कुछ छींटे डाले। देखते-देखते वहां का रूप कंचन जैसा बन गया।
मुनि कष्टों को सहते जा रहे थे। उनके अशुभ कर्म का विपाक हुआ पर वे दुःखी नहीं बने। यह है धर्म की कला। समस्या का कारण __ अशुभ कर्म का विपाक होने पर, दःख के प्रस्तुत होने पर दःखी नहीं होना, समता के साथ कर्म-फल को भोगना धर्म की कला को जाने बिना सम्भव नहीं बनता। आज का मानव उस कला से परिचित नहीं है इसीलिए समस्याएं विकराल बन जाती हैं। थोड़ा-सा सिरदर्द होता है तो व्यक्ति घरवालों की ही नहीं, पड़ौसियों की नींद भी हराम कर देता है।
एक आदमी का रेल से अंगूठा कट गया। वह चीखा, चिल्लाया। पास बैठे एक अधिकारी ने कहा-कितने अधीर और कमजोर हो! कल एक आदमी का सिर फट गया था। उसने उफ तक नहीं की और तम
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