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________________ 84 समयसार : निश्चय और व्यवहार की यात्रा थोड़ा-सा अंगूठा कट जाने पर भी चीख-चिल्लाकर सबको परेशान कर रहे हो। व्यक्ति की मनः स्थिति कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो कर्म-फल को भोगना नहीं जानते। जो व्यक्ति अशुभ कर्म-विपाक को भोगने की कला को जान लेता है, वह धर्म की कला को जान लेता है। कर्म के फल को कैसे भोगना चाहिए, जो इस बात को समझ लेता है, उसमें महानता और उदारता-दोनों उद्भूत हो जाती हैं। समस्या यह है-व्यक्ति कर्म-फल को भोगते समय अपने विवेक का उपयोग नहीं करता। पुण्य का उदय आता है, व्यक्ति अहंकार से भर जाता है। वह आदमी को भी आदमी नहीं समझता। यह कितनी तुच्छता है! पुण्य के फल को भोगने का जो अविवेक है, उसमें व्यक्ति की यह मनःस्थिति बनती है। आचार्य कुन्दकुन्द का दृष्टिकोण __ इस सन्दर्भ में आचार्य कुन्दकुन्द ने जो सूत्र दिया, वह बहुत महत्वपूर्ण वेदंतो कम्मफलं सुहिदो दुहिदो य हवदि जो चेदा। सो तम पुणो वि बंधदि बीयं दुक्खस्स अट्ठविहं।। जो व्यक्ति कर्म फल को भोगता हुआ सुखी और दुःखी बनता है, वह पुनः आठ प्रकार के कर्मों को बांध लेता है। धर्म के मर्म को वही व्यक्ति जान सकता है, जो सुख और दुःख की स्थिति में भी सुखी और दुःखी न बने। जब पुण्य का फल आता है, व्यक्ति को सुविधा और सामग्री मिल जाती है किन्तु उसमें सुखी होने का गर्व न करना सबसे बड़ी कला हे। सन्दर्भ भरत चक्रवर्ती का भरत चक्रवर्ती ने बहुत बड़े राज्य का संचालन किया। उनके पास अपार वैभव और ऐश्वर्य था। उनके पास चौदह अलभ्य रत्न थे। एक रत्न ऐसा था, जिससे सुबह बीज बोए जाते और शाम को फसल काट ली जाती। एक दिन में फसल पैदा हो जाती, अनाज सुलभ हो जाता। एक रत्न था चर्म रत्न। नदी को पार करना होता तो नौका की जरूरत नहीं होती। चर्म-रत्न को बिछाते ही नदी पर पल सा बन जाता। सैनिक उस पर बैठकर नदी पार कर लेते। एक रत्न था चेजारा रत्न। मकान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003072
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1991
Total Pages178
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size6 MB
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