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समयसार : निश्चय और व्यवहार की यात्रा
हो गई। दूसरे दिन चक्रवर्ती ने अतिरिक्त तैयारी की, अपनी साज-सज्जा पर विशेष ध्यान दिया। वे अनेक बार शीशे में अपने सौन्दर्य को देखते रहे, परखते रहे, गर्व से उन्मत्त बनते रहे । आदमी जब-जब शीशे के सामने जाता है तब-तब आधा पागल-सा बन जाता है।
अहंकार : परिणाम
चक्रवर्ती पूरी साज-सज्जा के साथ राज्यसभा में पहुंचे, वे राज - सिंहासन पर बैठ गए। उन्होंने ससम्मान ब्राह्मण को बुलाया। ब्राह्मण ने चक्रवर्ती को देखा। उसका मन घृणा से भर उठा। चक्रवर्ती ब्राह्मण की मुख - मुद्रा देखकर दंग रह गए। उन्होंने ब्राह्मण से कहा - आज मेरा सौन्दर्य देखने जैसा है, क्या तुम्हे अच्छा नहीं लगा ?
राजन् ! कल वाला सौन्दर्य चला गया। कल आप बहुत सुन्दर थे। आज सारा सौन्दर्य गायब हो गया है।
चक्रवर्ती ने सोचा - बुढ़ापे के साथ-साथ बुद्धि भी सठिया जाती है। जब कल मैं सामान्य स्थिति में था तब इसे सुन्दर लग रहा था और आज साज-सज्जा से युक्त हूं तब यह कह रहा है- -रूप चला गया, सौन्दर्य चला गया। चक्रवर्ती ने कहा- ब्राह्मण ! कुछ निकट आकर देखो, गौर से देखो।
राजन् ! क्या देखूं ! अब वह रूप नहीं रहा ।
कैसे नहीं रहा?
आप पीकदान मंगवाएं और उसमें थूक कर देखें ।
सनत्कुमार ने पीकदान में थूका । उन्होंने देखा -लट और कीड़े किलबिला रहे हैं।
सनत्कुमार ने कहा- यह क्या हुआ ?
महाराज! जिन सोलह बीमारियों को भयंकर माना जाता है, वे सारी की सारी एक साथ आपके शरीर में पैदा हो गई हैं। आपका सौन्दर्य नष्ट हो चुका है।
परम आचरण है समता
चक्रवर्ती सन्न रह गए। उनका अहंकार चूर-चूर हो गया। मन वैराग्य से भर गया। वे राज-पाट को छोड़कर मुनि बन गए। कठोर साधना कर अपने आपको भावित कर लिया।
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