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सत्य की खोज के दो दृष्टिकोण पुरुषार्थ का प्रश्न
निश्चय का दृष्टिकोण जागे बिना अपने पुरुषार्थ को जगाने की बात संभव नहीं बनती। जब तक हम अपना पुरुषार्थ नहीं जगा लेते, अपनी शक्ति को नहीं जगा लेते तब तक कोई भी हमारी सहायता करने नहीं आयेगा। वेदों का एक महत्त्वपूर्ण वचन है-जो अकर्मण्य होता है, देवता भी उसका सहयोग नहीं करते। देवता उसी का सहयोग करते हैं, जो पुरुषार्थी होता है। हम केवल निमित्तों के भरोसे पंगु जैसे बन गये हैं, गतिशून्य बन गए हैं। हमारी पुरुषार्थ-चेतना सोई हुई है। निश्चयनय पर पहुंचे बिना गति और पुरुषार्थ की बात प्राप्त नहीं होती। हम इस वास्तविक सचाई पर पहुंचें कि हमारी आत्मा ही सुख की कर्ता है, हमारी आत्मा ही दुःख की कर्ता है। आरोपण व्यवहार में __ अर्हत्-वंदना का महत्त्वपूर्ण पाठ हैः-अप्पा कत्ता विकत्ता य, दुहाण य सुहाण य। आत्मा ही सुख-दुःख की कर्ता है और आत्मा ही सख-दःख का नाश करने वाली है। समस्या यह है कि हमने आत्मा को भुला दिया और दूसरों को उसके स्थान पर लाकर बिठा दिया। हम प्रत्येक बात में केवल दूसरों को देखते हैं। बहुत लोगों से हम सुनते हैं-अमुक व्यक्ति ने कोई ऐसा टोना-टोटका करा दिया, मेरी स्थिति ही गड़बड़ा गई, मेरा व्यापार अस्त-व्यस्त हो गया। अनेक व्यक्ति कहते हैं-मेरे घर के व्यक्ति ने मुझ पर यह कर दिया, जिससे मेरी स्थिति दयनीय बन गई। प्रत्येक कार्य में व्यक्ति दूसरों की भूमिका को देखता है, अपनी कमजोरियों पर ध्यान नहीं देता। व्यक्ति की अपनी भी बहुत सारी कमजोरियां होती हैं किन्तु उन्हें नहीं देखता, अपनी स्थिति को दूसरों पर लाद देता है, आरोपित कर देता है। व्यवहारनय में यह आरोपण चलता है। जब तक इस आरोपण की वृत्ति से नहीं छूटा जाएगा तब तक हम समस्याओं का समाधान नहीं कर पाएंगे, दुःखों से छुटकारा भी नहीं पा सकेंगे। दुःख मुक्ति का मार्ग
दुःखों से छुटकारा पाने का मार्ग है-वास्तविकता तक पहुंचना, आरोपण न करना, जिस स्थान पर जो है, उसे समझने और जानने का प्रयत्न करना। वास्तविक सत्य है-प्रत्येक व्यक्ति अपने शुभ-अशुभ परिणाम से, अपने अध्यवसाय से नरक में जाता है, पशु बनता है, मनुष्य
बनता है, देवता बनता है। व्यक्ति को चाहिए कि वह अपने अध्यवसाय Jain Education International
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