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समयसार : निश्चय और व्यवहार की यात्रा
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जब तक निश्चय की चेतना नहीं जागेगी, तब तक शरीर की मूर्च्छा नहीं टूटेगी, धर्म की चेतना नहीं जागेगी। अध्यात्म में पहले शरीर की मूर्च्छा को तोड़ना होता है । यह अनुभव करना होता है- शरीर मेरा नहीं है। जैन दर्शन में इसे भेद - विज्ञान कहा जाता है। वेदान्त दर्शन में इसे देहाध्यास से मुक्ति कहा गया है। देहाध्यास से छुटकारा पाए बिना कोई साधना नहीं कर सकता, भेद-विज्ञान के बिना कोई साधना नहीं कर सकता। यदि हम केवल व्यवहार की सचाई पर अटक जाएंगे तो धर्म की चेतना तक नहीं पहुंच पाएंगे।
संदर्भ घर का
इस सचाई को दूसरे संदर्भ में देखें । आदमी का शरीर से निकट का संबंध है। उसका दूसरा संबंध घर से है। आत्मा रहती है शरीर में और शरीर रहता है घर में। घर मेरा है, यह व्यवहार की सचाई है । अगर यह सच नहीं होता तो आदमी घर नहीं बनाता किन्तु निश्चय की सचाई है, घर मेरा नहीं है। मुनि राजर्षि दीक्षित हो रहे थे । इन्द्र ब्राह्मण के रूप में प्रस्तुत हुआ । उसने प्रार्थना की- राजन् ! आप अभी दीक्षित हो रहे हैं? आपको बहुत सारे प्रासाद बनाने हैं। आप बड़े-बड़े महल खड़े करके प्रासाद बनायें, उसके बाद दीक्षा की बात करें । राजर्षि बोला- ब्राह्मण ! तुमने बड़ा विचित्र उपदेश दिया। तू नहीं जानता यहां मेरा घर नहीं बन सकता। जो आज घर बनाया जाएगा, वह कल टूट जाएगा, ऐसा घर मैं नहीं बनाना चाहता। मैं ऐसा घर बनाना चाहता हूं, जो बनाने के बाद कभी टूटे नहीं, पुराना न हो, खण्डहर न बने और उसी घर को बनाने के लिए मैं प्रस्थान कर रहा हूं।
नया दृष्टिकोण प्रस्तुत हो गया - यह घर मेरा नहीं है, मेरा घर है मेरा चैतन्य, मेरा घर है मेरी आत्मा, जहां पहुंचने पर लौटना नहीं होता। दुःख का कारण
अनेक बार दुःखी व्यक्ति कहता है- मुझे मेरा कर्म दुःख दे रहा है। शनि दुःख दे रहा है, राहू दुःख दे रहा है, पड़ौसी दुःख दे रहा है। कर्म दुःख दे रहा है, यह भी सचाई है। सौर विकिरणों का भी अपना प्रभाव होता है, वे भी मनुष्य को प्रभावित करते हैं। एक व्यक्ति कहता हैअमुक आदमी दुःख दे रहा है। इसे भी झूठ कैसे मानें? पड़ौसी रोज गालियां बकता है। हम झूठ कैसे मानें? जो सामने है, उसे झूठ कैसे माना जा सकता है किन्तु यदि हम इस सचाई में उलझ जायेंगे तो दुःख
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