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सत्य की खोज के दो दृष्टिकोण
संदर्भ शरीर का
हम इस सचाई को गंभीरता से समझें । एक व्यक्ति कहता है - मेरा शरीर है। शरीर मेरा है - एक साधु भी यह बात कहता है। एक गृहस्थ भी यह बात कहता है- मेरा शरीर है। पर यह हो नहीं सकता । शरीर मेरा है, यह व्यवहार का सच है । वास्तविक सचाई यह नहीं है । शरीर मेरा है, यह धारणा उपयोगी है। शरीर को अपना माने बिना कोई काम चलता नहीं है। व्यक्ति शरीर के आधार पर बोलता है, शरीर के आधार पर सोचता है । शरीर को अपना मानना एक उपयोगिता है इसलिए भगवान् महावीर ने कहा- जब तक समुद्र के पार नहीं पहुंच जाते तब तक नौका को छोड़ना नहीं है । शरीर एक नौका है। हम इसे तब तक नहीं छोड़ सकते जब तक इसका किनारा नहीं मिल जाता ।
शरीरमाहु नावोत्ति, जीवो वुच्चई नाविओ । संसारो अण्णओ वृत्तो, जं तरंति महेसिणो ।।
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शरीर नौका है, जीव नाविक है, संसार समुद्र है। जब तक दूसरे किनारे पर नहीं पहुंच जाते, तब तक नौका को नहीं छोड़ा जा सकता । शरीर व्यक्ति की एक उपयोगिता है इसलिए व्यक्ति कहता है- शरीर मेरा है किन्तु शरीर को अपना मानकर व्यक्ति ने दुःख भी कितने पैदा किये हैं। जो शरीर को अपना मानता है, वह उस शरीर के लिए क्या-क्या नहीं करता ! व्यक्ति शरीर के लिए हिंसा भी करता है, झूठ भी बोलता है, परिग्रह भी करता है। वह शरीर के लिए दूसरों को कठिनाई में भी डाल देता है। वह शरीर का भरण-पोषण भी करता है, लालन-पालन भी करता है। क्या शरीर दुःख नहीं देता ? बीमारी भी शरीर पैदा करता है। बुढ़ापा भी इसी शरीर में आता है। एक ओर शरीर महान् उपयोगी है तो दूसरी ओर शरीर महान् कष्ट देने वाला भी है । ' शरीर मेरा है, यह एक स्थूल सचाई है। सूक्ष्म सत्य है इस धारणा को तोड़ देना ।
नैश्चयिक सचाई
व्यक्ति अनुभव करे - शरीर मेरा नहीं है, मैं चैतन्यमय हूं, चैतन्य स्वरूप हूं। दर्शन मेरा स्वरूप है, ज्ञान मेरा स्वरूप है, वीतरागता मेरा स्वरूप है। एक स्वर है - शरीर मेरा है । दूसरा स्वर है - शरीर अचेतन है, प्राणी चेतन है। चेतन अचेतन को अपना माने, यह कितनी बड़ी
मूर्खता है। दोनों स्वर- अलग-अलग हैं किन्तु दोनों सच हैं। व्यवहार की Jain सचाई है. शरीर मेरा है । निश्चय की सचाई है-शरीर मेरा नहीं है!y.org