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समयसार :निश्चय और व्यवहार की यात्रा
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व्यवहार नय : निश्चय नय
यह कितना बड़ा चमत्कार है! क्या ऐसा विश्लेषण किया जा सकता है? बिना प्रयोगशाला के ऐसा निष्कर्ष निकाला जा सकता है? हमारी इन्द्रियों में इतनी क्षमता है, हमारे ज्ञान में इतना चमत्कार है पर हम इसे भूल गये हैं, परवश हो गए हैं। यंत्रों और उपकरणों के आश्रित बनकर हमने अपने ज्ञान की क्षमता को कम कर दिया। हमारी दृष्टि सूक्ष्मग्राही नहीं रही। जब हमारी दृष्टि सूक्ष्म बनती है तब हम व्यक्त पर्याय को, स्थूल पर्याय के एक अंश को ही नहीं देखते, वस्तु के समग्र अंशों को जान लेते हैं। __ एकांश को जानना व्यवहार नय है और समग्र को जान लेना निश्चयनय है। पूरे वृत्त को जानने वाली वृत्तग्राही दृष्टि निश्चयनय है और पर्यायग्राही दृष्टि व्यवहारनय। हम लोग भेद को देखते हैं, वस्तु को अलग-अलग रूप में देखते हैं, भेद को देखने वाली दृष्टि व्यवहार नय है और अभेद को देखने वाली दृष्टि निश्चय नय है।
ऐसा माना जाता है कि आचार्य कुन्दकुन्द ने समयसार की रचना की और उन्होंने व्यवहार नय का लोप कर दिया, केवल निश्चय नय पर बल दिया। यह मानना संगत प्रतीत नहीं होता। वस्तुतः सचाई यह नहीं है। सचाई यह है कि कन्दकन्दाचार्य ने निश्चय और व्यवहार - दोनों को ही स्थान दिया। उन्होंने व्यवहार नय का खण्डन नहीं किया, व्यवहार नय का लोप नहीं किया किन्तु निश्चय नय पर ज्यादा बल दिया। मैं मानता हूं कि निश्चय नय पर बल देना भी जरूरी था। आज सारा संसार व्यवहार नय के आधार पर पल रहा है, जी रहा है। मनुष्य की हर सांस में व्यवहार है। वह वास्तविक सचाई को भुलाए जा रहा है, निश्चय को विस्मृत कर रहा है। आचार्य भिक्ष ने भी निश्चय नय पर बहुत बल दिया। आध्यात्मिक आचार्य का महान् कर्तव्य
मैं मानता हूं-व्यवहार से निश्चय की ओर ले जाना एक आध्यात्मिक आचार्य का महान् कर्तव्य है। जो केवल व्यवहार पर, स्थूल धारणाओं पर अटकता रहेगा, वह अन्तिम सचाई तक पहुंच नहीं सकेगा। अन्तिम सत्य तक पहुंचने के लिए व्यवहार से आगे निश्चय तक पहुंचना जरूरी है। इसका अर्थ व्यवहार का अतिक्रमण या खण्डन नहीं है किन्तु व्यवहार की धारणाओं में परिष्कार करना है।
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