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जागरण और नींद का संघर्ष
61 लगते हो किन्तु कुछ भोले भी लगते हो। अगर यही बात मेरे पूर्वज सोचते तो इस बगीचे में आज एक भी पौधा नहीं होता। पूर्वजों के बोए पेड़ों के फल मैं खा रहा हूं और मेरे बोए पेड़ भावी पीढ़ी के काम आएंगे। क्या यह उपयोगिता नहीं है? आज के कार्य का फल भावी पीढ़ी को मिले, यह बहुत बड़ी उपयोगिता है। इक्कीसवीं शताब्दी का चित्र
वर्तमान बदल जाए तो भविष्य भी बदल जाए। वर्तमान पीढी बदल जाए तो भावी पीढ़ी भी बदल जाए। वर्तमान पीढ़ी का संयम भावी पीढ़ी के लिए कल्याणकारी बनता है और उसका असंयम भावी पीढ़ी के लिए अकल्याणकारी। वर्तमान पीढ़ी नहीं बदलती है तो उसका परिणाम भी भावी पीढ़ी को भुगतना पड़ता है। समाचार-पत्र में एक पर्यावरणविद् का लेख पढ़ा- आज का आदमी, वर्तमान पीढ़ी, भूमि और पानी का अतिरिक्त दोहन कर रही है। इसका परिणाम अगली पीढ़ी भुगतेगी। हो सकता है, इक्कीसवीं शताब्दी में कलकत्ता, बम्बई, दिल्ली, मास्को जैसे बड़े शहरों के लोगों को गंदी नालियों का पानी साफ कर पीना पड़े। वर्तमान पीढ़ी पानी का जो अपव्यय कर रही है, उसका परिणाम है- अगली पीढी पानी के गंभीर संकट से गजरेगी। बोलचाल की भाषा में दादा-पोते को एक कहा जाता है। दादा और पोता- वर्तमान तथा भावी पीढ़ी के प्रतीक के रूप में प्रयुक्त हो सकते हैं। दादाजी की मूर्खता का फल पोते को भगतना पड़ता है और उनकी समझदारी का फल भी उसे ही उपलब्ध होता है।
जीवन में मोड़ आए
हम वर्तमान की बात नहीं सोचते इसीलिए उलझ जाते हैं। हम इस बात को भूल जाते हैं कि हमारी शुद्ध चेतना की अनुभूति हमारे ही काम नहीं आएगी किन्तु वह अगली पीढ़ी के लिए भी अनेक समस्याओं का समाधान बन पाएगी। आज हम अनैतिकता की समस्या भोग रहे हैं। यह केवल वर्तमान पीढ़ी का ही करतब है, ऐसा नहीं कहा जा सकता। पहले से कुछ ऐसा प्रभाव आ रहा है, जिसका परिणाम हमें भगतना पड़ रहा है। आज भी यह बात हमारी समझ में आ जाए, शुद्ध चेतना में जीने का अभ्यास शुरू हो जाए तो जीवन का वातावरण बदल जाए, समस्याओं का चक्रव्यह टूट जाए। यदि हम प्रतिदिन एक घंटा शद्ध चेतना में रहें, काम, क्रोध और भय की चेतना से मक्त होकर आत्मानुभूति में रहें, ऐसा अभ्यास एक वर्ष तक करते रहें, हमें अनुभव होगा- हम कहां थे और कहां पहुंच गए हैं। हमारे जीवन में एक नया मोड़ आएगा।
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