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दिन और रात का द्वन्द्व आराधना के द्वारा वीतराग बन सकता है, केवलज्ञानी बन सकता है, मुक्त हो सकता है। इस भूमिका पर हम विचार करते हैं तो यह दिन और रात का द्वन्द्व हमारे लिए बाधक नहीं बनता। कभी दिन आ सकता है, कभी रात आ सकती है। हम ध्यान में बैठते हैं। उसमें कभी पैर सो सकता है, कभी हाथ सो सकता है, कभी कमर मे दर्द आ सकता है, कभी कोई विचार आ सकता है, अच्छा विचार भी आ सकता है, बुरा विचार भी आ सकता है किन्तु वे हमारे लिए कोई कठिनाई नहीं बनते। ज्ञाता-द्रष्टा बनें
हमें एक ही सूत्र मिला है- जो भी विचार आए, उसे जानें और देखें। कहा गया- अगर केवलज्ञानी बनना है तो ज्ञाता बनो। केवलदर्शनी बनना है तो द्रष्टा बनो। ज्ञाता और द्रष्टा बने बिना कोई केवलज्ञानी नहीं बनेगा, केवलदर्शनी नहीं बनेगा। यदि दर्द है तो दर्द को जानो, प्रतिक्रिया मत करो, केवल ज्ञाता बने रहो। जो व्यक्ति ज्ञाता बना रहेगा, वह एक दिन निश्चित ही केवलज्ञान की भूमिका में पहुंच जाएगा।
हमारे भीतर सारे संस्कार संचित हैं। वे उभरते रहते हैं। हम उन्हें देखते रहें, जानते रहें। कहा गया- यदि क्रोध का भाव आए, क्रोध को देखो। अध्यात्म का बड़ा अटपटा सूत्र है-- क्रोध आए तो क्रोध मत करो, उसे देखो, जानो। प्रश्न हो सकता है, क्रोध को कैसे देखें? क्या वह पछकर आता है? यह ज्ञाताभाव अभ्यास के द्वारा सिद्ध होता है। जिस व्यक्ति ने ज्ञाता और द्रष्टा होने की साधना की है, वह क्रोध को देख सकता है, राग को देख सकता है, मस्तिष्क में उठने वाली प्रत्येक तरंग को देख सकता है किन्तु उसे क्रियान्वित नहीं करता। फलवान् न बनाएं
साधना के साहित्य में दो शब्द आते हैं- क्रोध को सफल बनाना और क्रोध को विफल करना। क्रोध का आना एक बात है और क्रोध को सफल बनाना दूसरी बात है। क्रोध के संस्कार जागे, व्यक्ति ने संकल्प ले लियामैं दस मिनट तक नहीं बोलूंगा, क्रोध सफल नहीं बनेगा। व्यक्ति को क्रोध आया और वह गालियां बकने लगा, क्रोध सफल बन गया। क्रोध आया, मौन कर लिया, व्यक्ति एकान्त में चला गया, खेचरी मुद्रा का प्रयोग कर लिया, क्रोध सफल नहीं बन पाएगा। हमारे मन में कितनी विचार की तरंगें उठती हैं। हम उन्हें फलवान् न बनाएं तो हम एक भूमिका तक पहुंच जाते हैं। जो व्यक्ति ज्ञाता-द्रष्टा हो जाता है, वह भावों को फलवान नहीं बनने देता। चित्त में जितनी वृत्तियां उभरती हैं, वह उन्हें जान लेगा किन्तु
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