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समयसार : निश्चय और व्यवहार की यात्रा
धारणा का परिणाम
मुझे लगता है कि साधना के प्रति हमारी धारणाएं सम्यग् नहीं हैं। जब दृष्टिकोण सही नहीं होता है तब बहुत भ्रांतियां पनपती हैं। जब धारणा में भ्रान्ति होती है, सारी स्थिति बदल जाती है।
एक व्यक्ति ने सैकड़ों लोगों को भोज पर आमंत्रित किया। एक व्यक्ति का पेट खराब था, आंतें खराब थीं। वह भोज में जा रहा था । रास्ते में वैद्यजी मिल गए। उसने कहा- वैद्यजी महाराज ! भोज में जा रहा हूं ।
क्या खाओगे?
लड्डू। लड्डू तो जहर है।
जो दूसरे लोग जा रहे थे, उन्होंने सुना - लड्डू जहर है। एक व्यक्ति ने दूसरे से बात की। जो भोज दे रहा है, उसके लड्डू में तो जहर है। यह बात ऐसी फैली कि भोज देने वाला प्रतीक्षा ही करता रहा। एक भी व्यक्ति भोजन करने नहीं आया।
धारणा में कितना अन्तर आ गया। रोगी के लिए लड्डू जहर हो सकता है, सब लोगों के लिए नहीं । गलत धारणाओं को पालने वाला व्यक्ति चल ही नहीं सकता । बहुत बार लोग सोचते हैं - यह बात पूरी हो जाए तो हम जाएं, नहीं तो नहीं जाएं। वे यह नहीं सोचते - कोई काम शुरु नहीं होगा तो पूरा होने का प्रश्न ही कहां से आएगा?
असफलता का कारण
एक बहुत बड़ी समस्या का समाधान आचार्य कुन्दकुन्द ने जघन्य शब्द के द्वारा किया। ज्ञान का विकास, दर्शन का विकास और चारित्र का विकास एक छलांग में नहीं होता, एक साथ नहीं होता। एक साथ एक अल्पज्ञानी व्यक्ति केवली नहीं बनेगा, एक साथ एक रागी आदमी यथाख्यात चारित्र वाला वीतराग नहीं बनेगा । साधना करते-करते ज्ञान, दर्शन और चारित्र का विकास होता है। जैसे-जैसे कषाय कम होगा, हमारा चारित्र आगे बढ़ेगा पर वह क्रमिक होगा, पुरुषार्थ की साधना के द्वारा होगा। साधना के क्षेत्र में व्यक्ति यह सोचे- मैं यह काम कर रहा हूं पर पता नहीं क्या होगा? वह कभी सफल नहीं हो पाएगा। राजनीति के आचार्य चाणक्य और सोमदेव सूरी ने इस संदेह को असफलता का बहुत बडा कारण माना है। एक आदमी ने किसान से पछा-खेती नहीं करोगे?
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