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________________ ___45 दिन और रात का द्वन्द्व होता, वह निराश्रव होता है, उसके आश्रव नहीं होता तो दूसरी ओर कहा गया-जिसका ज्ञान-दर्शन और चरित्र जघनय होता, उत्कृष्ट नहीं होता, वह कभी तो ध्यान की साधना करता है, कभी समता की साधना करता है, कभी तपस्या करता है और कभी उसके विपरीत आचरण करना शुरू कर देता है। कारण यह है-जब तक जघन्य ज्ञान है, हम निर्विकल्प या समता की अवस्था में या ध्यान की एक धारा में ४८ मिनट से ज्यादा रह नहीं सकते। ४८ मिनट के बाद हमारे परिणामों की श्रेणी बदल जाती है। ध्यान में बैठा व्यक्ति ४८ मिनट तक एक पवित्र धारा में रह सकता है। उसके बाद ध्यान की स्थिति बदल जाती है। वह निर्विकल्प अवस्था में होता है तो सविकल्प अवस्था में आ जाता है। हमें विकास की यात्रा करनी है। हम यह मानकर न चलें कि कहीं पहुंच गए हैं। जिसने दस वर्ष से साधना शुरू की है, वह अभी विकास की यात्रा में है। न जाने कितने संस्कारों का भार हमारे मस्तिष्क पर पड़ा हुआ है। हम एक छलांग में सिद्ध बन जाएं, सराग से वीतराग बन जाएं, यह कभी भी संभव नहीं है। धारण बदले जब कोई साधक कहीं चूकता है, लोग आश्चर्य करते हैं। वे इस बात को भूल जाते हैं कि वह अभी सिद्ध नहीं बना है, वीतराग नहीं बना है, सराग है, उसकी साधना राग-द्वेषयुक्त चेतना वाली साधना है। वहां हो सकता है-चलते-चलते वह कभी लड़खड़ा जाए, कभी गिर जाए, कभी उठ जाए और फिर संभल जाए। न जाने कितनी बार जीवन में ऐसा होता है और न जाने कितने जन्मों में यह क्रम चलता रहता है। ऐसा करते-करते ही वह एक दिन वीतराग की कक्षा में पहंचता है, जहां पहंचने पर सारी स्थितियां समाप्त हो जाती हैं, सारी विषमताएं समाप्त हो जाती हैं। व्यक्ति पहले ही दिन यह सोचकर बैठ जाए-मैं तो वैसी साधना करूंगा, जिसमें कोई कठिनाई न आए और मैं सीधा वीतराग बन जाऊं। वह कभी साधना नहीं कर पाएगा। साधना के प्रारंभ में कठिनाइयां आती हैं और व्यक्ति कठिनाइयों को पार करता चला जाता है तो उन्हें पार करते-करते एक दिन वह अवस्था आती है, कठिनाइयां समाप्त हो जाती हैं, व्यक्ति सराग अवस्था को पार कर वीतराग बन जाता है। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003072
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1991
Total Pages178
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size6 MB
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