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________________ 44 समयसार : निश्चय और व्यवहार की यात्रा है-क्या यह पाखण्ड नहीं है? व्यक्ति आधा घण्टा वीतराग बना किन्तु उसके पश्चात् सारी सराग की स्थितियां आ जाएं, यह दोहरा व्यक्तित्व पाखंड के अलावा कुछ नहीं है। कुछ समय के लिए एकाग्रता की साधना और शेष दिन में विषमता की प्रवृत्तियां। इस प्रश्न पर गहरे में उतरकर विचार करें तो एक नया पहल सामने आता है, एक नई ज्योति सामने आती है, वह पहल हैं-जब तक हमारा ज्ञान, दर्शन और चारित्र जघन्य श्रेणी में है तब तक ऐसा होना स्वाभाविक है। यह एक नियम है। आचार्य कुन्दकुन्द का कथन आचार्य कुन्दकुन्द ने लिखा-जघन्य ज्ञान, दर्शन और चारित्र में कर्म का दण्ड होगा। जम्हा दु जहण्णादो णाणगुणादो पुणो वि परिणामदि। अण्णत्तं णाणगुणो तेण दु सो बंधगो भणिदो।। दसणणाणचरित्तं जं परिणमदे जहण्णभावेण ।। णाणी तेण दु बज्झदि पोग्गलकम्मेण विविहेण ।। दूसरी ओर उन्होंने कहा-ज्ञानी और सम्यक् दृष्टि के कर्म का बंध नहीं होता। रागो दोसो मोहो य, आसवा णत्थि सम्मदिट्ठिस्स। तम्हा आसवभावेण विणा, हेदू ण पच्चया होति ।। रागद्वेषविमोहाना, ज्ञानिनो यदसंभवः।। तत एव न बंधोस्य, ते हि बंधस्य कारणम् ।। यदि व्यक्ति ज्ञानी बन गया, सम्यक् दृष्टि बन गया तो उसके कर्म का बंध नहीं होगा। इसका अर्थ है, वह चाहे सो करे, यह प्रश्न है। एक ऐसा मिथ्यावाद भी कुछ लोगों ने फैलाया है। ऐसा लगता है-उन्होंने आचार्य कन्दकन्द की भाषा को समग्रता से नहीं पढ़ा। आचार्य कन्दकन्द की भाषा में सम्यक् दृष्टि और ज्ञानी वह व्यक्ति है, जिसका चारित्र यथाख्यात हो गया। जिसे केवलज्ञान प्राप्त हो गया, केवलदर्शन प्राप्त हो गया, उसके कर्म का बंध नहीं होता, कषायजनित कर्म का बंध नहीं होता। यह बात समझ जा सकती है किन्तु एक शब्द को पकड़कर आदमी उलझ जाता है। वह सोचता है-मैं सम्यक् दृष्टि बन गया, अब चाहे सो करूं, कर्म का बन्ध तो होगा नहीं। यह बहुत बड़ा भ्रम है। विकास का प्रश्न - एक ओर कहा गया-ज्ञानी और सम्यक् दृष्टि के कर्म का बंध नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003072
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1991
Total Pages178
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size6 MB
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