________________
दिन और रात का द्वन्द्व सूरज आता है, दिन हो जाता है। सूरज अस्त होता है, रात हो जाती है। यह दिन और रात का होना सरज का पाखण्ड नहीं है। यह एक प्रकृति का अनिवार्य नियम है। जीवन में भी कभी दिन आता है, कभी रात आती है। कभी प्रकाश आता है, कभी अंधकार आता है। हम इसे पाखण्ड क्यों मानें हम यह क्यों आशा करें कि एक व्यक्ति हमेशा एक जैसा रहे। हम चाहते हैं-व्यक्ति एक जैसा रहे, उसका आचरण प्रकाश जैसा रहे, अंधकार जैसा न रहे। इस चाह के पीछे प्रकृति का नियम नहीं है। प्रकृति का नियम कुछ और है। उसमें एक जैसा कोई होता ही नहीं। जो एक जैसा होता है, वह दूसरी कक्षा में जाकर होता है। दो कक्षाएं __ अध्यात्म के क्षेत्र में दो कक्षाएं हैं-सराग कक्षा और वीतराग कक्षा। वीतराग कक्षा में जो व्यक्ति पहुंच जाता है, वह एक जैसा रहता है। दिन हो या रात, प्रकाश हो या अंधकार, व्यक्ति अकेला रहे या परिषद् में कोई अन्तर नहीं आता। वीतराग दशा सम दशा है, उसमें कोई, परिवर्तन नहीं आता। इसका नाम है यथा-ख्यात चारित्र। यथाख्यात का अर्थ है-कथनी और करनी की समानता। इस स्थिति में व्यक्ति जैसा भीतर होता है, वैसा ही बाहर रहता है। जैसा बाहर होता है, वैसा ही भीतर रहता है। जो कहता है, वही करता है और जो करता है, वही कहता है। यह पूरी समानता वीतराग के लिए संभव है किन्तु जो पहली कक्षा है, सराग की कक्षा है, उसमें यह बात संभव नहीं है। उसमें उतार-चढ़ाव आता रहता है, अलगाव आता रहता है। नया पहलू __ प्रश्न होता है-जब अन्तर आता रहता है तब व्यक्ति साधना क्यों करे? व्यक्ति ने आधा घंटा ध्यान का प्रयोग किया। वह शान्ति और समता में रहा. वीतराग जैसी स्थिति में रहा। ध्यान का प्रयोग परा हआ, वह घर पर गया, दुकान और ऑफिस में गया, स्थिति बदल गई। प्रश्न
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org