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बंधन आखिर बंधन है
39 घिर जाता है। विकल्पों को पैदा करने में कषाय अहम भूमिका निभाता है। जब तक क्रोध और अहंकार प्रबल है, माया और लोभ जागृत हैं तब तक विचारों का सिलसिला रुकेगा नहीं। जो विचार आते हैं, उन्हें आने दिया जाए। विचार आ रहे हैं, यह चिन्ता का विषय नहीं होना चाहिए। हमारा चिन्तन यह बने-हम विचारों के साथ बह न जाएं। जो व्यक्ति विचार या विकल्प का रेचन करना नहीं जानता, उन्हें अपने भीतर स्थान दे देता है, वह विचारों से मुक्ति नहीं पा सकता। व्यक्ति अपना ही घर किराएदार को दे देता है तो उसे छुड़ाना मुश्किल हो जाता है। न जाने कितने किराएदारों को हमने अपने भीतर स्थान दे रखा है और वे हमारे चारित्र को बाधित किए हुए हैं। जब तक कषाय को कम नहीं किया जाता- क्रोध, मान, माया और लोभ का उपशमन नहीं किया जाता, तब तक सम्यक आचरण की संभावना नहीं की जा सकती, नैतिक और प्रामाणिक व्यवहार की आशा नहीं की जा सकती।
पुण्य की वांछा भी पाप है
मिथ्यात्व, अज्ञान और कषाय- विकास में ये तीन बाधाएं हैं। इनको दूर करने वाला व्यक्ति ही आत्म-साक्षात्कार की बात कर सकता है। जब तक ये तीनों विघ्न विद्यमान हैं, आत्म-दर्शन की बात सार्थक नहीं बनती।
कहा गया- पुण्य की इच्छा मत करो। अज्ञानी पुण्य की इच्छा करता है। पाप की इच्छा कोई नहीं करता। व्यक्ति न पाप की इच्छा करता है और न पाप का फल चाहता है। सभी पुण्य की आकांक्षा करते हैं। आचार्य भिक्षु ने लिखा – पुण्य तणी इच्छा कियां लागै पाप एकान्तजो पुण्य की इच्छा करता है, उसे एकान्त पाप लगता है। प्रश्न हुआकिसकी इच्छा करें। कहा गया- केवल निर्जरा की इच्छा करो, परमार्थ की इच्छा करो। आत्मशुद्धि की इच्छा करो, पुण्य की इच्छा मत करो। अनेक आचार्यों ने इस बात पर बहुत बल दिया। इस परम्परा में आचार्य कुन्दकुन्द का नाम लिया जा सकता है, आचार्य भिक्षु का नाम लिया जा सकता है। कुछेक आचार्य ऐसे हुए हैं, जिन्होंने शुद्ध आध्यात्मिक चेतना के विकास पर बल दिया है। उन्होंने पण्य और पाप को बंधन के रूप में प्रस्तुत कर उनसे अलग होने का सूत्र प्रस्तुत किया है।
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