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समयसार : निश्चय और व्यवहार की यात्रा सोवणियं पिणियलं, बंधदि कालायसं पि जह पुरिसं।। बंधदि एवं जीवं सहमसहं वा कदं कम्म।। तम्हा दु कुसीलेहि य रागं मा कुणह मा व ससग्ग।।
साहीणो हि विणासो, कुसीलसंसग्गरागेण।। शब्दातीत चेतना का विकास
पुण्य का बंधन बहुत जटिल बंधन है। जो व्यक्ति इस बंधन का अनुभव नहीं करता, वह धर्म और अध्यात्म की दिशा में विकास नहीं कर सकता। हमें अगर वर्तमान जीवन में अध्यात्म का अवतरण करना है, समस्याओं को सुलझाना है तो एक अभ्यास करना होगा-- जीवन की यात्रा में पुण्य और पाप- दोनों को भोगते हुए भी शब्दातीत चेतना का विकास करना होगा, आत्मानुभव की दिशा में प्रस्थान करना होगा। यही एक मार्ग है, जहां हजारों समस्याएं एक साथ सलझ जाती हैं। जिस दिन निर्विकल्प चेतना को जीने का मार्ग हमारे सामने आएगा, उस दिन समस्याओं से छुटकारा पाने का मार्ग हमारे हाथ में आ जाएगा। पुण्य और पाप के चक्कर में फंसा हुआ आदमी आत्मा और परमात्मा की बात सुने, यह बहुत मुश्किल है। जो व्यक्ति शब्दों, विचारों और विकल्पों से परे जाने का मंत्र सीख लेता है, वह आत्म-साक्षात्कार और आत्मानुभूति की दिशा में प्रस्थित हो जाता है।
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