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________________ बंधन आखिर बंधन है की कल्पना साकार नहीं बन पाएगी। व्यक्ति को पदार्थ मिल सकता है, धन मिल सकता है, सुविधा मिल सकती है किन्तु सुख मिल सकता हैयह कहना बहुत कठिन है। हमने ऐसे लोगों को देखा है, जो करोड़पति हैं किन्तु उनके दुःख की कोई सीमा नहीं है। मैंने अरबपति व्यक्ति को अपनी आंखों के सामने रोते हुए देखा है, दुःख से बिलखते हुए देखा है। जिसका दष्टिकोण सम्यग नहीं बना, वह सब कछ पाकर भी गरीब का गरीब बना रहता है और जिसे सम्यग् दर्शन मिल जाता है, वह बादशाह बन जाता है। फकीर कौन? शहर में एक फकीर आया हुआ था। सब लोग उसके दर्शन करने जा रहे थे। राजा ने फकीर की चर्चा सुनी। वह भी फकीर के दर्शन करने गया। उसने देखा- फकीर के तन पर पूरे कपड़े भी नहीं हैं। राजा बोला- महाराज! आप बहत गरीबी में जी रहे हैं। मेरे राज्य में इतना गरीब आदमी कोई नहीं है। मैं आपको कुछ भेंट करना चाहता हूं। फकीर मौन रहा। राजा ने सोनैयों से भरे थाल फकीर के सामने रखे और कहा- 'महाराज! आप मुझे ऐसा आशीर्वाद दें, जिससे मेरा राज्य बना रहे, मेरा राज्य बढ़ता रहे, मेरा ऐश्वर्य सदा वृद्धिंगत होता रहे। फकीर ने कहा- मुझे कुछ नहीं चाहिए। तुम मेरे सामने से हट जाओ। तम बताओ- जो मांगता है, वह गरीब होता है या जो नहीं मांगता, वह गरीब होता है। राजा यह सुनकर स्तब्ध रह गया। दुःख-मुक्ति का पहला सूत्र : सम्यग्दर्शन जिस व्यक्ति में सम्यग्दृष्टि की चेतना जाग जाती है, वह दुनिया का बादशाह बन जाता है। जिसका दृष्टिकोण मिथ्या बना रहता है, वह सब कुछ पाकर भी फकीर बना रहता है। जब तक आत्म-दर्शन नहीं होता तब तक मिथ्या दृष्टिकोण नहीं बदलता और इसी मिथ्या-दृष्टिकोण ने सम्यग्दर्शन की चेतना को बांध रखा है। यही हमारे विकास में बाधा बना हुआ है, हमारी दृष्टि को विपरीत बनाए हुए है। जहां सुख नहीं है, वहां सुख दिखाई देता है और जहां सुख भरा हुआ है, वहां सुख दिखाई नहीं देता। व्यक्ति में ऐसी मूर्छा पैदा हो जाती है कि कुछ पता ही नहीं चलता। जो अपना है, उसे वह पराया मानता चला जाता है और जो पराया है, उसे अपना मानता चला जाता है। यह भ्रांति न जाने कितने दुःखों की सृष्टि कर रही है। समस्या और दुःख मुक्ति का पहला सूत्र है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003072
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1991
Total Pages178
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size6 MB
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