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समयसार : निश्चय और व्यवहार की यात्रा कल्पनीय सुख हवाई युनिवर्सिटी में पॉलिटिकल साइंस के एक प्रोफेसर हैंलेनपेज। वे प्रेक्षाध्यान शिविर में भाग ले रहे थे। एक दिन रात्रि में उन्होंने ध्यान का प्रयोग किया। प्रयोग के तत्काल बाद वे मेरे पास आए, बोले- आज मैंने जिस सख और शांति का अनभव किया है, वैसे सख और शांति की कल्पना हम अमेरिकन लोग स्वप्न में भी नहीं कर कते।
मैंने पछा- क्या आपको खाने-पीने में ऐसा पदार्थ मिला है, जिससे सुख की अनुभूति हुई?
नहीं। मैंने पनः पछा- सख का कारण क्या बना? ग्लेनपेज बोले-ध्यान। कैसे मिला? ध्यान से अपूर्व सुख मिला है, यह सचाई है किन्तु कैसे मिला, इसकी याख्या मैं नहीं कर सकता।
हमारे शरीर के भीतर विद्युत् है। जब वह सक्रिय होती है, व्यक्ति को बड़ा सख मिलता है। हमारे भीतर विद्यत की अनेक तरंगें हैं। जब-जब अल्फा तरंगें- एल्फा वेव्ज तरंगित होती हैं, व्यक्ति को इतना सुख मलता है, जितना संसार के किसी भी पदार्थ से नहीं मिल पाता। हमारे भीतर ऐसे-ऐसे रसायन हैं, जो व्यक्ति को अपार सुख में डुबो सकते हैं। एकाग्रता के द्वारा, ध्यान के द्वारा, भक्ति के द्वारा, आंतरिक चेतना के वकास के द्वारा ऐसे रसायन पैदा होते हैं और उनसे जो सुख मिलता है, वेसा सुख और किसी पदार्थ से कभी नहीं मिलता। दार्थ और सुख
सूत्रकृतांग सूत्र की चूर्णि में लिखा है- जब ईर्यापथिकी क्रिया कषायमुक्त क्रिया) का विकास होता है, तब अनपम सख का अनुभव होता है। दो प्रकार की क्रियाएं हैं- ईर्यापथिकी और सांपरायिकी।
पथिकी क्रिया कषाय-मुक्त होती है और सांपरायिकी क्रिया रुषाय-संवलित होती है। ईर्यापथिकी क्रिया में जो सुख है, उससे हम प्रांखें मूंदे हुए हैं। जहां सुख नहीं है, उसके पीछे हम दौड़ते चले जा रहे हैं। यह है मिथ्या दृष्टिकोण। जब तक यह दृष्टिकोण नहीं बदलेगा, सुख
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