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बंधन आखिर बंधन है
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णाणस्स पडिणिबद्ध, अण्णाणं जिणवरेहिं परिकहियं। तस्सोदयेण जीवो, अण्णाणी होदि णादव्वो।। चारित्तपडिणिबद्ध कसायं जिणवरेहिं परिकहियं।
तस्सोदएण जीवो, अचरित्तो होदि णादव्वो।। मिथ्यात्व, अज्ञान और कषाय ये तीन हमारे जीवन के सबसे बड़े विघ्न हैं, समस्या और दःख की सृष्टि करने वाले हैं। जब तक व्यक्ति का दृष्टिकोण सही नहीं होता, तब तक समस्या का चक्र अनवरत घूमता रहता है। जीवन की बहुत सारी समस्याएं मिथ्या दृष्टिकोण के कारण पैदा होती हैं। व्यक्ति का दृष्टिकोण सही नहीं है। वह हर बात को उल्टा देखता है। मिथ्या दृष्टिकोण के कारण व्यक्ति रस्सी को सांप समझ लेता है। वह भयग्रस्त होकर भागने लगता है, डर के मारे चिल्लाने लगता है। सीपी पर सूर्य की किरणें पड़ती हैं, वह चमकने लग जाती है। व्यक्ति उसे चांदी का टुकड़ा समझ लेता है और उसे पाने के लिए लालायित हो जाता है। जब कच्छ के थार पर सूर्य की किरणें पड़ती हैं तब ऐसा लगता है- चारों ओर पानी ही पानी है, तालाब ही तालाब है। यदि उसके भरोसे व्यक्ति गर्मी की मौसम में यात्रा पर निकल जाए तो क्या होगा? ज्यों-ज्यों व्यक्ति आगे बढ़ेगा, पानी आगे सरकता चला जाएगा, तालाब दूर होता दिखाई देगा। इसका नाम है- मृग-मरीचिका। बेचारा हरिण उस थार में पानी की आशा में दौड़ता है, दौड़ता ही चला जाता है और आखिर में वह प्यास से व्याकुल बना हुआ अपने प्राण गंवा देता है किन्तु उसे पानी की एक भी बूंद प्राप्त नहीं होती। सुख : तीन बाधाएं
जब तक दृष्टिकोण सही नहीं होता, तब तक यह मृग-मरीचिका व्यक्ति को सताती रहती है। वह सुख की चाह में निकलता है और द:ख को पैदा करता जाता है। जो व्यक्ति अपने भीतर ठहर जाता है, न जाने उसमें क्या रासायनिक परिवर्तन होता है, वह सुख का अनुभव करने लग जाता है। जिस व्यक्ति ने अपने शरीर को स्थिर कर लिया, वाणी को स्थिर कर लिया, मन को स्थिर कर लिया, वह सख की दिशा में प्रस्थित हो गया। जब ये तीनों स्थिर होते हैं, भीतर की चेतना जागने लगती है, आत्मा से साक्षात्कार होना शुरू हो जाता है। सुख में तीन बाधाएं हैंमन की चंचलता, वाणी की चंचलता और शरीर की चंचलता। जब तक ये बाधाएं बनी हुई हैं तब तक कभी सुख का अनुभव नहीं हो सकता।
सुख हमारे भीतर छिपा पड़ा है। जरूरत है उसे जगाने की। Jain Education International
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