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समयसार : निश्चय और व्यवहार की यात्रा परिणाम और पुण्य का हेतु है 'शुभ परिणाम। पाप का स्वभाव है बुरा फल देना और पुण्य का स्वभाव है अच्छा फल देना। पाप एवं पुण्य का अनुभव भिन्न-भिन्न होता है। ये दोनों विजातीय हैं। आत्म-साक्षात्कार और परमात्मा का साक्षात्कार करने की इच्छा रखने वाले व्यक्ति की दष्टि में पण्य और पाप-दोनों विघ्न हैं, विजातीय हैं। वे उसके सजातीय नहीं हो सकते। सजातीय हैं ज्ञान, दर्शन और चारित्र। विजातीय है पुद्गल। पुण्य भी पुद्गल है और पाप भी पुद्गल है। पुद्गल चाहे पुण्य के रूप में प्रकट हो, चाहे पाप के रूप में प्रकट हो, पुद्गल पुद्गल है और वह आत्मा को बांधने वाला है, चेतना को आवृत करने वाला है। पुण्य का भोग : पाप का बंध
अध्यात्म का महत्त्वपूर्ण सूत्र है-व्यक्ति को पुण्य के आकर्षण से मुक्त करना। हजारों वर्षों से पण्य के प्रति व्यक्ति के मन में एक बड़ा आकर्षण रहा है। आदमी दो बातें चाहता है-सदा पुण्य बढ़ता रहे और पुण्य का फल मिलता रहे। वह इन दो बातों में उलझा हुआ है। जब तक मनुष्य इन दो बातों में उलझा रहेगा तब तक उसमें भय की चेतना जागेगी, अध्यात्म की चेतना नहीं जागेगी। जिस दिन यह बात समझ में आएगी कि पुण्य भी काम का नहीं है और पुण्य-फल की आंकाक्षा भी नहीं करनी चाहिए, उस दिन अध्यात्म का क्षण उपलब्ध होगा। जो व्यक्ति पण्य के फल को भोगने लगता है, वह पाप का संकलन करता है। पुण्य के भोग से पाप का बंधन होता है। वह संसार का हेतु है, उसे सुशील कैसे कहा जा सकता है?
कम्ममसहं कसील सहकम्मंचावि जाणह ससीलं।
कहं तं होदि ससीलं, जं संसारं पवेसेदि।। विचार का चक्र
चेतना के दो प्रकार हैं-सविकल्प चेतना और निर्विकल्प चेतना। सविकल्प चेतना वह है, जिसमें एक के बाद दूसरा विकल्प उठता रहता है, एक के बाद दूसरा विचार आता रहता है। दिन भर विचारों और विकल्पों का तांता लगा रहता है। विकल्प ही विकल्प उभरते चले जाते हैं। कहीं विकल्पों का अंत ही नहीं होता। विचारों का सिलसिला कभी रुकता ही नहीं है। एक दिन में न जाने कितने विचार व्यक्ति के मानसपटल पर उतर आते हैं! कभी अच्छा विचार, कभी बुरा विचार, कभी लाभदायक, कभी हानिकारक, कभी हर्ष पैदा करने वाला और For Private & Personal Use Only
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