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बंधन आखिर बंधन है जीवन का तिनका : आकर्षण का प्रवाह
आकर्षण और विकर्षण-इन दो शब्दों के बीच में जीवन की यात्रा चल रही है। एक वस्तु के प्रति आकर्षण पैदा होता है और एक वस्तु के प्रति विकर्षण पैदा होता है, घृणा और द्वेष जागता है। विकर्षण एक समस्या है। आकर्षण उससे ज्यादा गहरी समस्या है। एक आकर्षण ने अनेक समस्याएं पैदा की हैं। पदार्थ के प्रति आकर्षण, सत्ता के प्रति आकर्षण, वस्त्र के प्रति आकर्षण, व्यक्ति के प्रति आकर्षण। चारों ओर आकर्षण ही आकर्षण। न जाने कितने आकर्षण है! ऐसा लगता है-जैसे आकर्षण के प्रवाह में जीवन का तिनका बहता चला जा रहा है। आदमी विकर्षण को समझ लेता है, उसे छोड़ने का प्रयत्न करता है किन्तु आकर्षण को छोड़ना बहुत कठिन होता है। धर्मशास्त्र में इन दो शब्दों के प्रतिनिधि शब्द हैं-पण्य और पाप। यदि धार्मिक व्यक्ति पाप और पण्य के चक्र में फंसा रहता है तो मानना चाहिए-वह सही अर्थ में धार्मिक नहीं है। जैसे ही व्यक्ति का अध्यात्म के क्षेत्र में प्रवेश होता है, पाप और पुण्य पर्दे के पीछे चले जाते हैं। यदि पाप और पण्य पर्दे के पीछे नहीं जाते हैं तो सही अर्थ में धर्म का अवतरण नहीं होता, अध्यात्म की चेतना नहीं जागती। विजातीय है पुद्गल
आचार्य कुन्दकुन्द ने अध्यात्म का एक महत्त्वपूर्ण सूत्र दिया-जैसे पाप हेय है, वैसे ही पण्य भी हेय है। पण्य और पाप-ये दोनों संसार के हेतु हैं, मोक्ष के हेतु नहीं हैं।
परमट्ठबाहिरा जे ते अण्णाणेण पुण्णमिच्छति।
संसारगमणहेदं वि, मोक्खहेदं अजाणता।। पुण्य और पाप के स्वभाव में अन्तर है, हेतु में अन्तर है और अनुभव में भी अंतर है किन्तु दोनों ही बंधनकारक हैं। पाप का हेतु है अशुभ
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