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ज्ञान खोल देता है जीवन में नए आयाम
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होता है। स्कूली शिक्षा के आधार पर यह भेदरेखा खींची जाती है किन्तु अध्यात्म की भाषा इससे सर्वथा भिन्न है । अध्यात्म की भाषा में अज्ञान है प्रबल राग । रोग के कारण ही अनैतिकता की समस्या व्यापक बनती है।
एक सेठ अपनी दूकान पर जा रहा था। मार्ग में एक भिखारी मिला। उसने सेठ से कुछ देने की प्रार्थना की। सेठ ने जेब में हाथ डाला। एक सोने की गिन्नी निकाली और भिखारी के हाथ में थमा दी। सेठ आगे बढ़ गया। भिखारी ने देखा - यह सोने की गिन्नी है। वह सोच ही नहीं सकता था कि भिखारी को कोई सोने की गिन्नी दे सकता है। भिखारी लंगड़ाता - लंगड़ाता सेठ के पीछे चला । दूकान पर पहुंचा। उसने कहा - सेठजी ! यह लीजिए, आपकी गिन्नी । शायद आपने भूल से रुपये के स्थान पर गिन्नी दे दी। सेठ यह सुनकर विस्मय से भर गया । उसने सोचा - यह आदमी भिखारी होकर कितना ईमानदार है! सेठ ने जेब से दूसरी गिन्नी निकालकर भिखारी को दे दी । भिखारी सेठ के इस व्यवहार पर मुग्ध था और सेठ उसकी ईमानदारी पर ।
ज्ञान और ध्यान
नैतिकता और ईमानदारी ने भी एक भिखारी को चुना है। भिखारी जितना ईमानदार है, प्रामाणिक और नैतिक है, उतना सम्पन्न व्यक्ति नहीं है। जिसके मन में लोभ और स्वार्थ प्रबल नहीं है, वह हर आदमी ईमानदार और नैतिक हो सकता है। बेईमान, अनैतिक और अप्रमाणिक वही व्यक्ति होगा, जो स्वार्थी और लोभी है। स्वार्थ और लोभ क्रूरता को जन्म देते हैं। जिसके मन में क्रूरता का निवास है, वह समाज के निर्माण का नहीं, संहार का कारण बन सकता है।
इन सारी समस्याओं के मूल में अज्ञान है इसीलिए आचार्य ने इस बात पर बल दिया - ज्ञानी बनो। ज्ञान ही एक ऐसा रास्ता है, जिसके द्वारा समस्या का समाधान किया जा सकता है। हम इस बात को स्पष्ट समझें- ज्ञान और ध्यान- दो बातें नहीं हैं। जिस समय मन में राग और द्वेष का भाव नहीं होता है, उस समय ज्ञान होता है और उसी समय ध्यान होता है । राग-द्वेष मुक्त क्षण में जीने का नाम है ज्ञान । ज्ञान और ध्यान की दूरी मिटाना एक बहुत बड़ी आध्यात्मिक भूमिका है। इसमें आचार्य कुन्दकुन्द ने एक बड़ा योग दिया है। ज्ञान और ध्यान की दूरी का समाप्त होना महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है। जैसे-जैसे यह ज्ञान और ध्यान की
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