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जान खोल देता है जीवन में नए आयाम
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अध्यात्म की भाषा
हम अध्यात्म की भाषा को पढ़ें। दो प्रकार के कर्म माने जाते हैं-रूखा कर्म और चिकना कर्म। एक है अकर्म। प्रवृत्ति के साथ कर्म का बंध होता है। यदि रूखे कर्म का बंध होता है तो वह उदय में आएगा कन्त उसका विपाक गहरा नहीं होगा। पदार्थ के प्रति अनुरागात्मक इच्छा नहीं है तो कर्म का बध हल्का होगा। वह सहज उदय में आकर क्षीण हो जाएगा। यदि दृढ़ रागात्मक प्रवृत्ति होती है तो कर्म का बंध सघन होगा, चिकना होगा और उसका गहरा विपाक भोगना होगा। अनुराग से कर्म विपाक में बहुत अन्तर आ जाता है। वर्तमान में प्राप्त के प्रति अनुराग का न होना, भविष्य की आकांक्षा का न होना, यह ज्ञानी का लक्षण है। अलेप
ज्ञानी का एक लक्षण है-अलेप। ज्ञानी के लेप नहीं होता। ज्ञानी अलेप हो जाता है। मिट्टी का लेप होता है, कीचड़ का लेप होता है, खंजन का लेप होता है। आज भी अनेक प्रकार के लेप और श्लेष प्रचलित हैं, जो चिपक जाते हैं। ज्ञानी के लेप नहीं लगता। आचार्य कुन्दकुन्द ने इस बात को बहुत स्पष्ट किया है। एक ज्ञानी आदमी कर्मों के बीच रहता है किन्तु वह उनसे लिप्त नहीं होता। आचार्य कुन्दकुन्द ने बहुत सुन्दर उदाहरण दिया है
णाणी रागप्पजहो, सव्वदव्वेसु कम्ममज्झगदो। णो लिप्पदि रजएण द्, कद्दममज्झे जहा कणयं।। अण्णाणी पुण रत्तो सव्वदव्वेसु कम्ममज्झगदो।
लिप्पदि कम्मरएण दु कद्दममझे जहा लोहं।। कीचड़ में लोहा और सोना – दोनों पड़े हुए हैं। दोनों की प्रकृति अलग है। कीचड़ में पड़े हुए सोने पर जंग नहीं लगेगा, वह बिलकुल साफ रहेगा किन्तु लोहे पर जंग लग जाएगा। जैसे सोने और लोहे की प्रकृति अलग-अलग है, वैसे ही अज्ञानी और ज्ञानी आदमी की प्रकृति अलग-अलग है। अज्ञानी आदमी कर्म के मध्य रहता है तो वह उसमें लप्त हो जाता है। ज्ञानी आदमी उसी घटना में रहते हुए भी लिप्त नहीं होता। घटना समान है,एक लिप्त हो जाता है, दूसरा अलिप्त बना रहता
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