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समयसार : निश्चय और व्यवहार की यात्रा युद्ध का मूल कारण
प्रसन्नचन्द्र राजर्षि ध्यान की मुद्रा में खड़े थे। एक स्वर सुनाई दिया-राजपाट छोड़कर मनि बन गया, ध्यान कर रहा है। लड़के पर शत्रुओं ने आक्रमण कर दिया, वह बेचारा मारा जा रहा है। यह सुनते ही राजर्षि की ज्ञानचेतना समाप्त हो गई। अज्ञान प्रकट हो गया। राजर्षि ध्यानमुद्रा में खड़े युद्ध करने लग गए। युद्धभूमि पर नहीं गए, मोर्चे पर नहीं गए किन्तु ध्यान युद्ध की भावना में बदल गया। कायोत्सर्ग की मुद्रा में राजर्षि का युद्धभाव तीव्रतर होता चला गया। वे इतने लड़े कि लड़ते-लड़ते सातवीं नारकी तक जा सके, ऐसी लड़ाई शुरू कर दी।
जब अज्ञान जागता है भीतर की लड़ाई शुरू हो जाती है, अन्तर में यद्ध और संघर्ष प्रारंभ हो जाता है। जितने राष्ट्रीय कलह हैं, सामाजिक और संस्थागत कलह हैं, वे व्यक्ति के भीतर से शुरू होते हैं। संयुक्तराष्ट्रसंघ का यह वक्तव्य- 'युद्ध पहले मनुष्य के मस्तिष्क में लड़ा जाता है' नया नहीं है। हजारों वर्ष पहले यह बात कही गई, यद्ध पहले मनुष्य के दिमाग में पैदा होता है, फिर रणभूमि में लड़ा जाता है। रणभूमि में लड़े जाने वाले युद्ध का मूल कारण मनुष्य के मस्तिष्क में है। अज्ञानी आदमी के मस्तिष्क में लड़ाइयां, झगड़े, कलह, अन्तद्वंद्व चलते रहते हैं। ज्ञानी आदमी के मस्तिष्क में कुछ भी नहीं होते। वह इन सबसे अलिप्त रहता है। रूक्ष होता है ज्ञानी
उपचारबुद्धि, अनिच्छा और अलेप - ये तीन ऐसे तत्त्व हैं, जो ज्ञानी की जीवनयात्रा में सामंजस्य स्थापित करते हैं, ज्ञानी और अज्ञानी के बीच भेदरेखा भी खींच देते हैं।
प्रश्न है-क्या ज्ञानी होना सबके लिए जरूरी होता है? अज्ञानी का भी जीवन चलता है, निर्भयता से चलता है। एक अज्ञानी आदमी पदार्थ को जितना भोगता है, ज्ञानी आदमी उतना नहीं भोगता। अज्ञानी आदमी जीवन का जितना रस लेता है, ज्ञानी आदमी जीवन का उतना रस नहीं लेता। महावीर की भाषा में ज्ञानी आदमी रूक्ष होता है इसीलिए अज्ञान के प्रति जितना आकर्षण है, उतना ज्ञान के प्रति नहीं है किन्तु अज्ञानी जीवन में समस्याएं बहुत आती हैं। उन समस्याओं से मुक्ति पाने के लिए व्यक्ति के मन में ज्ञानी होने की इच्छा जागती है। एक अन्तःप्रेरणा जागती है-ज्ञानी होना चाहिए, अज्ञान को मिटाना चाहिए, ज्ञान पाना चाहिए।
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