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________________ समयसार : निश्चय और व्यवहार की यात्रा इस दृष्टिकोण का प्रतिपाद्य है। यह अन्यथा का दृष्टिकोण या उपचार का दृष्टिकोण ज्ञान और जीवन व्यवहार में सामंजस्य स्थापित करता है, ज्ञान और व्यवहार के अन्तर को मिटाता है। परिग्रही कौन? प्रश्न हुआ-क्या ज्ञानी आदमी परिग्रह नहीं करता? उत्तर दिया गया-ज्ञानी आदमी परिग्रह नहीं करता। क्या भोजन परिग्रह नहीं है? क्या मकान में रहना परिग्रह नहीं है? इस प्रश्न के संदर्भ में आचार्य कुन्दकुन्द के विचार बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। परिग्रही वह है, जिसके मन में इच्छा है। ज्ञान और अज्ञान के बीच भेदरेखा खींचते हए आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा-जिसके मन में इच्छा पैदा होती है, वह अज्ञानी है अपरिग्गहो अणिच्छो भणिदो, णाणी य णेच्छदे धम्म। अपरिग्गहो दु धम्मस्स जाणगो तेण सो होदि।। इच्छा और अज्ञान, अनिच्छा और ज्ञान-यह एक विचित्र रेखा है। प्रश्न होता है-क्या ज्ञानी आदमी इच्छा नहीं करता? क्या ज्ञानी आदमी को भूख नहीं लगती? क्या भूख लगने पर वह भोजन की इच्छा नहीं करेगा? जब व्यक्ति में इच्छा उत्पन्न होती है, तभी वह भोजन करता है। आचार्य कुन्दकुन्द द्वारा प्रस्तुत इच्छा शब्द सामान्य अर्थ में इष्ट नहीं है। उनके कथन का तात्पर्य है-वह इच्छा इच्छा नहीं है, जिसके साथ लगाव नहीं होता, आकर्षण नहीं होता। आकर्षण या लगाव के साथ जो मांग पैदा होती है, वह इच्छा है। इच्छा : अनिच्छा हम इसे उदाहरण की भाषा में समझें। इच्छा है दिमाग में महल का रहना और अनिच्छा है महल में व्यक्ति का रहना। कितना बड़ा अन्तर है! व्यक्ति महल में रहता है, यह एक बात है और व्यक्ति के दिमाग में महल रहता है, यह बिल्कुल दूसरी बात है। दिमाग में भोजन रहे, यह अनिच्छा नहीं है, ज्ञान नहीं है। भोजन केवल हाथ से आए और मुंह में जाए तो वह ज्ञानी का भोजन है और दिमाग में रहे तो वह अज्ञानी का भोजन है। आदमी कितने मनसूबे बांधता है। वह सोचता है-आज मौसम बहुत अच्छा है, हलुआ खाना चाहिए, बड़े-पकौड़े बनने चाहिए, यह बनना चाहिए, वह बनना चाहिए। इसका अर्थ है-उसके दिमाग में भोजन रहता है। कभी-कभी व्यक्ति उपवास करता है। दिन बीतता है, उपवास का असर आना शुरू हो जाता है। रात को नींद नहीं आती। वह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003072
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1991
Total Pages178
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size6 MB
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