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________________ ज्ञान खोल देता है जीवन में नए आयाम 19 उसका उपचार करना है। एक साधक या ज्ञानी व्यक्ति का भोजन के प्रति चिकित्सात्मक दृष्टिकोण होगा। एक सामान्य व्यक्ति का, अज्ञानी का, भोजन के प्रति रसनात्मक दृष्टिकोण होता है । वह सोचता है - भोजन कितना स्वादिष्ट है, कितना मधुर है ! घटना एक होती है और दृष्टिकोण दो बन जाते हैं । एक ज्ञानी व्यक्ति भी भोजन करता है, एक अज्ञानी व्यक्ति भी भोजन करता है किन्तु भोजन के पीछे जो दृष्टिकोण होता है, वह बिल्कुल पृथक् होता है। एक व्यक्ति का दृष्टिकोण होता है स्वाद का, शरीर के पोषण का, शरीर को बढ़ाने का और एक व्यक्ति का दृष्टिकोण होता है चिकित्सा करने का । उपचार बुद्धि छेदसूत्रों में मुनि के लिए विधान किया गया - शोभा बढ़ाने के लिए, शरीर के सौन्दर्य को बढ़ाने के लिए भोजन नहीं करना चाहिए। प्रश्न प्रस्तुत हुआ-मुनि भोजन किसलिए करे ? भोजन का उद्देश्य क्या हो ? इस प्रश्न के उत्तर में कहा गया- केवल शरीर धारण के लिए, शरीरनिर्वाह के लिए, संयम जीवन की निर्बाध पालना के लिए और वेदना के शमन के लिए मुनि भोजन करे। भूख से जो वेदना होती है, कष्ट होता है, उसे शांत करने के लिए मुनि भोजन करता है। यह दृष्टिकोण का परिवर्तन ज्ञान की प्रतिष्ठा से ही संभव बनता है 1 वह परिवर्तन का पहला सूत्र है - उपचारबुद्धि । जब व्यक्ति के भीतर ज्ञान जागता है, आदमी ज्ञानी बनता है तब उसकी जो बुद्धि जागती है, उपचारबुद्धि होती है। एक ज्ञानी व्यक्ति मकान में रहेगा किन्तु उसका दृष्टिकोण होगा - जीवन में आने वाली कठिनाइयों को कम किया जा सके, साधना का मार्ग निरापद बन सके। शरीर में रोग पैदा होने पर वह दवा भी लेता है किन्तु उसका उद्देश्य होता है - साधना के लिए शरीर को स्वस्थ रखना । अन्तर है दृष्टिकोण का आचारांग सूत्र का महत्त्वपूर्ण सूक्त है - अण्णहा णं पासह परिहरेज्जा । जो पश्यक है, द्रष्टा है, ज्ञानी है, वह भोग करता है, खान-पान, शयन आदि -आदि सारे व्यवहारों को जीता है किन्तु उनके प्रति उसका दृष्टिकोण एक दूसरे प्रकार का होता है। एक सामान्य आदमी या अज्ञानी आदमी जैसा व्यवहार करता है, ज्ञानी आदमी उससे अन्यथा करेगा। जो बात आचारांग के इस सूक्त से फलित होती है, वही आचार्य कुन्दकुन्द के For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003072
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1991
Total Pages178
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size6 MB
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